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________________ संस्कृति सांख्य और जैनधर्म । ३३७ आचार्योंने इन वाक्यों के आधार पर यागानुष्ठानों में विधिप्राप्त पशुबलि को विशुद्ध धर्म का ही रूप मान लिया है और उसको हिंसा की कोटि से बाहर निकाल दिया है । मूल वेद की दृढ़ अहिंसा भावना के साथ इसका सामंजस्य करने के लिये उत्सर्ग और अपवाद नियमों का उपयोग किया है । उनका विचार है कि वेद में अहिंसा की भावना उत्सर्ग अर्थात् सामान्य नियम है । किसी विशेष नियम से उसकी बाधा हो जाती है । सामान्य वाक्य विशेष वाक्य के क्षेत्र को छोड़ कर ही प्रवृत्त होता है । इस प्रकार यागीय पशुबलि को वेद विरुद्ध न समझ कर उसे धर्म का रूप दिया गया है । सांख्य इन विचारों को इस रूप में स्वीकार नहीं करता। उसका कहना है कि जब अहिंसा ही परम धर्म है तो किसी प्रकार की भी हिंसा को अधर्म के क्षेत्र से बाहर नहीं लाया जा सकता । यदि किसीने पशुबलि को यागानुष्ठान में उपयोगी बतलाया है तो भले ही उससे याग सम्पन्न कर लिया जावे, पर वह अपने स्वरूप में हिंसा अवश्य हैं और वह अधर्म है । किसी भी प्राणी को कष्ट पहुंचाने की स्थिति, चाहे वह याग के लिये हो या याग से अन्यत्र, दोनों जगह एक समान ही है । जब एक व्यक्ति आमिष का प्रयोग करता है तो उसका भी उदरपूर्ति में उपयोग है । याग में उपयोग याग को सम्पन्न करेगा, उदरपूर्ति में उपयोग उसको पूरा करेगा। वह हिंसा का स्वरूप दोनों जगह सर्वथा एक है । इसलिये खाली याग या देवता का नाम हिंसा को अहिंसा बनाने में बचना नहीं हो सकता । सांख्य का ऐसा विचार अहिंसा में उसकी परम निष्ठा को प्रकट करता है । जैनधर्म में विचार का मूल स्याद्वाद है। यह निश्चित है कि सांख्य में इस प्रकार की बिचारशैली को स्वीकार नहीं किया गया । पर अपनी-अपनी विचारशैलियों के आधार पर जो परिणाम प्रकट किये गये हैं उन पर थोड़ा दृष्टिपात कीजिये । जैनधर्म के विचार जिस ष्ट को लेकर चलते हैं, उसके अनुसार समस्त विश्व के मूलभूत तत्त्व दो भागों में विभक्त किये गये हैं - एक जीव तत्त्व, दूसरा अजीव अर्थात् जड़ तत्त्व । सांख्य में भी मूलभूत तत्त्वों को दो भागों में बांटा गया हैं, यद्यपि उनके लिये नामपद अलग हैं, पर उनका अर्थ वही है । सांख्य में पुरुष और प्रकृति ये दो प्रकार के मूल तत्त्व माने गये हैं । पुरुष चेतन तत्त्व है तथा प्रकृति जड़ तत्त्व है । चेतन और जड़ दो प्रकार के स्वतन्त्र तत्त्वों को स्वीकार करने के कारण ही सांख्य वैदिक दर्शनों में द्वैतवादी समझा जाता है । इस प्रकार ये दोनों दर्शन विश्व को सुलझाने के लिये जिन आधारभूत अथवा मूलभूत तत्त्व को लेकर चलते हैं, वे दोनों जगह समान ही प्रतीत होते हैं । ४३
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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