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________________ सांख्य और जैनधर्म विद्याभास्कर श्री उदयवीर शास्त्री, प्रधानाचार्य श्री शार्दूल संस्कृत विद्यापीठ, बिकानेर इस लघुकाय लेख में जैनधर्म के इतिहास अथवा उसकी प्राचीनता, अर्वाचीनता आदि के विषय में कुछ प्रकाश डालने का हमारा लक्ष्य नहीं है । यहाँ केवल जैनधर्म की कतिपय मान्यताओं का सांख्य-विचारधारा के साथ सामञ्जस्य अथवा असामञ्जस्य का प्रदर्शन करना ही इस लेख का उद्देश्य है। जैनधर्म ' इस पद के दो अर्थ किये जा सकते हैं या समझे जा सकते हैं। एक 'जिन' नामक देवता को माननेवाले व्यक्तियों का धर्म अर्थात् 'जिन' को देवता माननेवाले जैन उनका जो भी कोई धर्म है वह जैनधर्म है । परन्तु इसीका दूसरा अर्थ इस प्रकार किया जाता है जो पहले से कुछ अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है । वह है-'जिन' के द्वारा कहा हुआ धर्म-अभिप्राय यह कि 'जिन' ने जिस धर्म का प्रवचन किया, उपदेश दिया, वही जैनधर्म है। 'जिन' किसी एक व्यक्तिविशेष का नाम नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कामक्रोधादि आत्मिक विकारों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने से इस अवस्था या पद को प्राप्त कर लेता है और वही 'जिन' कहा जाता है । इस प्रकार ये ' जिन ' किसी ईश्वर के अवतार नहीं, प्रत्युत साधारण जीव ही अपने बल, पौरुष के आधार पर इस स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं । प्रत्येक जीव का अपना स्वाभाविक गुण है-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तबल । जब जीव काम, क्रोधादि विकारों और उनके कारण-कर्मों से घिरा रहता है, तब उसके ये स्वाभाविक गुण अन्तर्हित रहते हैं, प्रकट नहीं हो पाते । इन पर विजय प्राप्त कर लेने पर वह अवस्था आ जाती है । जैनधर्म में 'जिन' की वही स्थिति है जो और धर्मों में परमात्मा की समझी जाती है । इस प्रकार विशेष अवस्था में प्रत्येक जीव परमात्मा बन सकता है । 'जिन'बन जाने पर अर्थात् काम, क्रोध, राग, द्वेष आदि के नष्ट हो जाने पर उसके स्वाभाविक गुण प्रकाश में आ जाते हैं और वह सर्वज्ञ हो जाता है, सर्वशक्ति हो जाता है । उस अवस्था में दिये गये उपदेश प्रामाणिक होते हैं । क्यों कि दो ही कारणों से कोई कही गई बात अशुद्ध हो सकती है-एक अज्ञान के कारण, दूसरी राग-द्वेषादि के कारण । यह स्थिति 'जिन' जीव में नहीं रहती। इस लिये उनके उपदेश अशुद्ध न होने के कारण प्रामाणिक समझे जाते हैं। (४३)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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