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________________ ३१६ कपिलऋषि और नहुष की कथा - महाभारत शान्तिपर्व अ. २६८ में महाराजा नहुष का आख्यान देते हुए बताया है कि एक वार महर्षि त्वष्टा अतिथिरूप से महाराजा नहुष के घर आये । महाराज नहुषने वेदविधि के अनुसार उन्हें मधुपर्क देने के लिये गोवध करने का विचार किया । इतने में ज्ञान - वान्, संयमी महात्मा कपिल वहां आगये । उन्होंने नहुष को गोवध करने के लिये उद्यत देख कर अपनी नैष्ठिकी बुद्धि के प्रभाव से कहा कि ऐसे वेद को धिक्कार है जिसमें हिंसा का विधान है । पुनः शान्तिपर्व के अ. २६९ में कपिलऋषि कहते हैं कि जो मनुष्य सब प्राणियों को आत्मतुल्य समझता है उसके मार्ग में देवता भी मोहित होते हैं । यज्ञ आदि का फल नश्वर समझ कर मनुष्य को तत्त्वज्ञान का ही आश्रय लेना चाहिये । अहंकार और कामवासनाओं के जीतने तथा चित्त की विशुद्धि एवं इन्द्रियों का संयम करने से ही मनुष्य ब्रह्मज्ञानी होता है । याज्ञिक अनुष्ठानादि सकाम कर्म की अपेक्षा निष्काम कर्म ही श्रेयस्कर है । महात्मा बुद्ध और वर्षाऋतुचर्या की कथा श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक -ग्रंथ दर्शन और विनयपिटक के तीसरे स्कन्ध के ३. १. १. के पढ़ने से पता लगता है कि जब तक बुद्ध महात्माने अपने भिक्षु संघ के लिये वर्षाऋतु के चातुर्मास में एक जगह ठहर कर वास करने का नियम नहीं बनाया था तबतक मगधदेश की जनता प्राचीन भारतीय अहिंसा पद्धति के कारण सदा बौद्ध भिक्षुओं के आचार की निन्दा करती रही और इस बात को देख कर वह हैरान थी कि किस प्रकार शाक्यपुत्र के श्रमण हरे तृणों का मर्दन करके एकेन्द्रिय जीव वनस्पति को पीड़ा देते हैं । और इस वनस्पति में रहनेवाले छोटे-छोटे प्राणिसमुदाय को मारते हुए हेमन्त में भी, ग्रीष्म में भी, वर्षा में भी विचरण करते हैं। ये दूसरे तीर्थ ( मत ) वाले साधु वर्षावास एक ही जगह रहते हैं । ये चिड़ियां भी वृक्षों के ऊपर घोंसले बनाकर वर्षाऋतु में लीन होकर एक ही स्थान में रहती हैं । परन्तु ये शाक्यपुत्रीय श्रमण हरे तृणों का मर्दन करते हुए सदा विचरते रहते हैं । महात्मा बुद्ध को जब इस लोकनिन्दा का पता लगा तो उन्होंने भिक्षुओं को बुलाकर वर्षावास का आदेश दिया । ( १ ) पश्च यज्ञ का विधान इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि जिस भारतीय जनता को छोटे २ जन्तुओं की हिंसा भी बड़ी अखरती थी वह भला यज्ञार्थ होनेवाली पशुहिंसा, मांसाहार तथा सुरापान को कैसे सहन कर सकती थी । यही कारण है कि वैदिक आर्यजन के आगमन से ले कर आज तक जब कभी भी इसलामी सभ्यता ( १२ वीं सदी) व ईसाई सभ्यता ( १८ वीं सदी) के
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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