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________________ २८२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और संबंधियों से मिलने में दिन बिताए, संध्या होने पर पत्नी शयनागार सजावे, स्वयं भी सुसज्जित होकर सुकोमल शय्या पर प्राणप्रिय के साथ बैठे, कुछ देर तक उस चिर विरही युगल की वार्ताएं हों और बाद में वे दोनों प्रणय-प्रकर्ष से सांसारिक सुख-साधना में निमग्न हों-उस समय उस युवक-युवति-युगल को जैसा सुखानुभव होता है, उससे भी अनन्त गुणा अधिक सुख का अनुभव देव-देवियों को होता है। वाणव्यंतर देवों से नागकुमार आदि सभी भवनपतियों का और उनसे असुरेन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, तारा, चन्द्र, सूर्य आदि उत्तरोत्तर समस्त सुरसमूह का सुखानुभव अनन्त गुणा अधिक है। (सूर्य० पन्न०) यहां यह ध्यान रहे कि जिन जीवों को वेदनाबुद्धि ग्राह्य नहीं है उन्हीं जीवों की वेदना का सोदाहरण वर्णन आगमों में किया गया है। सुख-दुःख के कारण आगमों में सुख दो प्रकार का कहा गया है-वैषयिक सुख, आध्यात्मिक सुख । वैषयिक सुख-दुःख का कारण वेदनीय कर्म माना गया है । वेदनीय कर्म के दो भेद हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय । सांसारिक वैषयिक सुख का वेदन सातावेदनीय उदय से और दुःख का वेदन असातावेदनीय के उदय से होता है। ___ प्राणीमात्र के प्रति अनुकंपा आदि शुभ अध्यवसायों से आकर्षित शुभ पुद्गल संघात का जब आत्मा के साथ संबंध होता है तब सातावेदनीय कर्म का बंध कहा जाता है। प्राणातिपात आदि पापाचरण के समय अशुभ अध्यवसायों से आकर्षित अशुभ पुद्गल संघात का जब आत्मा के साथ संबंध होता है तब असातावेदनीय कर्म का बंध कहा जाता है। जिस व्यक्ति के सातावेदनीय कर्म का उदय होता है उसे इष्ट, कान्त, प्रिय एवं मनोज्ञ पुद्गलों का संयोग सुखकारक होता है। (भग० श०६, उ०७) जिस व्यक्ति के असातावेदनीय कर्म उदय होता है उसे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय एवं अमनोज्ञ पुद्गलों का संयोग और मनोज्ञ पुद्गलों का वियोग दुःखकारक होता है। (भग० श० ६, उ० ७) नैरयिक जीवों को सदा अनिष्ट पुद्गलों का ही संयोग होता है। इसलिए वे सदा दुःख का ही वेदन करते हैं। देवताओं को सदा इष्ट पुद्गलों का ही संयोग होता है। इसलिए वे सदा सुख का ही संवेदन करते हैं । तिर्यंच और मनुष्यों को कभी इष्ट पुद्गलों और कभी अनिष्ट पुद्गलों का संयोग होता रहता है। इसलिए वे कभी सुख और कभी दुःख भोगते हैं। ( भग० श० १४, उ०९)
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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