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________________ २६६ भीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ दर्शन और नहीं । समय पाकर वे जावेंगे या कोई उन का अपहरण कर ले । दोनों में एकसी ही कथा है । परन्तु हम अपने समक्ष उनका अपहरण होने में भय करते हैं । जैसे रज्जु में सर्पभ्रान्ति होने से हमको भय होता है-इसका भी मूल कारण शरीर को अपना मानना है । यदि सर्पने आकर हमको काट लिया तो हम अकालमृत्यु के पास हो जावेंगे । यदि शरीर को निज न मानते तो भय की कथा न होती । इसी तरह अन्य पदार्थों को अपनाना ही भय का कारण है । ( इति भयपरिग्रह) जुगुप्सापरिग्रह इसी तरह जुगुप्सा भी परिग्रह है । इसके उदय में जो पदार्थ हमारी रुचि के विरुद्ध हैं, उन्हें देखकर हम ग्लानि करते हैं, नाक-भौं सिकोड़ते हैं, आंख बन्द कर लेते हैं और अगर सह्य न हुवा तो मूर्छित हो जाते हैं। यद्यपि शरीर भी इन्हीं पदों का पिण्ड है, जिन्हें देखकर हमें ग्लानि आती है । प्रातः काल इन्हीं करकमलों से उसे धोना पड़ता है। उस समय शौच नहीं जावें यह नहीं हो सकता; क्योंकि रोगी होनेका, पेट में वेदना होने का भय जो लगा है। जिस कार्य को आप स्वयं करते हो और प्रतिदिन बार-बार करते हो उसी काम को यदि आप जैसे ही मनुष्य पर्यायवाले ने कर दिया और उस पर आप ग्लानि करें-यह क्या न्याय है ? . यह आलाप करें कि यह नीच है, भंगी है, इनसे दूर रहो। इसकी कथा छोड़ो। तुम्हारे यहां जब पंक्तिभोजन होता है, तब मिष्टान तो आप लोग उदराग्नि में फेंक देते हो और जो कुछ पत्तल में शेष रहा उसे भी अपने रूप में नहीं रहने देते। कुल्ला आदि करके उसे सानी बना देते हो। इसे तो अन्नरूप से वे ही उपयोग में लावेंगे जो हमारे सहश ही मनुष्य हैं। . यदि उन्हें भी शिक्षा आदि दी जावे तो वे भी बैरिस्टर, डॉक्टर, हेडमास्टर आदि बनकर हाइकोर्ट, कालेज, अस्पतालों में कुर्सी की शोभा बढ़ा सकते हैं। ___अस्तु ! यह तो लौकिक कथा रही तथा लौकिक में आप उनको स्पर्श न करिये; क्योंकि वे अस्पृश्य हैं। अस्पृश्य तो शरीर है। उसे स्पर्श करो या मत करो कुछ हानि नहीं। यही अन्य को उपदेश दो । परन्तु जो कल्याण का जनक सम्यग्दर्शन है और जिसके होते ही आत्मा सम्यक्चारित्र का पात्र होता है क्या आप उसे रोक सकते हैं ! कहां जाते हो ! यह तो चाण्डाल है, ऐसा कह कर नहीं रोक सकते । समन्तभद्रदेवने तो यहां तक कहा है: सम्यग्दर्शनसंपन्नमपि मातङ्गदेह जम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाकारान्तरौजसम् ॥
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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