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________________ ર૪ર - श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक ग्रंथ दर्शन और रहता है। वैसे ही अखिल विश्व में कोई भी स्थान ऐसा खाली नहीं है जहाँ कि चेतन-तत्त्व अनंतानंत मात्रा में न हो । जैसे जल के प्रत्येक कण में जो कुछ तत्त्व और जो कुछ शक्ति है, वैसा ही तत्व और वैसी ही शक्ति समुद्र के संपूर्ण जल में है । इसी तरह से समूह रूपेण पिंडी-भूत संपूर्ण चेतन तत्त्व में जो-जो शक्तियाँ अथवा वृत्तियाँ हैं; वे ही और उतनी ही शक्तियाँ, वृत्तियाँ भी एक-एक चेतन-कण में अथवा प्रत्येक आत्मा में हैं । ये वृत्तियाँ अनंतानंत रूप हैं और शक्तियाँ भी अपरिमित हैं, जो कि इस चेतन-कण में स्वाभाविक हैं, प्राकृतिक हैं, अनादि हैं, अक्षय हैं और परस्पर में तादात्म्यरूप हैं। इन्हीं से चेतन-शक्ति बनी हुई है और चेतन-शक्ति से ही इनका अस्तित्व है। ये परस्पर में उपादान-कारणरूप हैं। इन का अस्तित्व अनादि-अनंतरूप है । ये शक्तियाँ प्रत्येक आत्मा के साथ सहजात और सहचर धर्मवाली हैं। सांसारिक अवस्था में परिभ्रमण करते समय आत्मा की इन शक्तियों के साथ पुद्गलों का अति सूक्ष्मतम से अति सूक्ष्मतम अदर्शनीय आवरण अनिष्ट वासनाओं के कारण से और वृत्तियों के संस्कारों से संमिश्रित रहता है। इस कारण से ये शक्तियाँ मलीन, विकृत, अविकसित, अर्धविकसित एवं विपरीत रूप से विकसित आदि नाना रूपों में प्रस्फुटित होती हुई देखी जाती हैं। चेतनतत्त्व सामूहिक पिंड में संबद्ध होने पर भी प्रत्येक चेतन-कण का अपना-अपना अलग-अलग अस्तित्व है । समूह से अलग हो कर वह अपना पूर्ण और सांगोपांग विकास कर सकता है । जैसा कि हम प्रतिदिन देखते हैं कि विभिन्न चेतन कणोंने मनुष्य-तिर्यच आदि अवस्थाओं के रूप में अपना-अपना विकास करके इन अवस्थाओं को प्राप्त किया हैं और यदि विकास की गति नहीं रुके तो निरन्तर विकास करता हुआ प्रत्येक चेतन-कण ईश्वरत्व को प्राप्त कर सकता है जो कि विकास और ज्ञान की तथा पवित्रता एवं सर्वोच्चता की अंतिम श्रेणी है। यह 'परमतम सर्वश्रेष्ठ विकासशील अवस्था' प्रत्येक चेतन-कण में स्वाभाविक है; परन्तु 'उसका विकास कर सकना अथवा विकास नहीं कर सकना' यह प्रत्येक चेतन-कण के अपने-अपने प्रयत्न और अपनी-अपनी परिस्थिति पर निर्भर है । प्रत्येक चेतन-कण में अर्थात् प्रत्येक आत्मा में यह स्वाभाविक शक्ति है कि वह अपने स्वरूप को ईश्वर-रूप में परिणित कर सकता है और इस प्रकार अपने में विकसित, अखण्ड, परिपूर्ण और विमलज्ञान द्वारा विश्व की संपूर्ण अवस्थाओं को और उसके हर अंश को देख सकता है। प्रत्येक आत्मा अनादि है, अक्षय है, नित्य है, शाश्वत है, अचिन्त्य है, शब्दातीत है, अगोचर है। मूल रूप से ज्ञानस्वरूप है, निर्मल है, अनन्त सुखमय है। सारांश यह है कि साक्षात् ईश्वरस्वरूप ही है। इस कारण से सभी प्रकार की सांसारिक मोह और माया आदि
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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