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________________ २४० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और आचरणों द्वारा ही समाज में कोई नीच अथवा कोई उच्च हो सकता है । मानवमात्र अपने आप में स्वयं एक ही है । मानवता एक और अखण्ड है। सभी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक विधि-विधानों का मानवमात्र समान अधिकारी है । जो अपने आप को जैन कहता हुआ भी अन्य को इन अधिकारों के उपयोग में बाधक होता है अथवा अन्य को इन अधिकारों से वंचित करता है वह जैनधर्म के अनुसार मिथ्यात्वी है और जैन नहीं है, किन्तु जैनाभास है । भगवान् की आज्ञा का वह विराधक है और तदनुसार उसे नरक में जाना पड़ेगा ऐसा शास्त्र में स्पष्टतः उल्लेख है । किसी भी धर्म को जो केवल निवृत्तिप्रधान बतलाता है वह अपरिमार्जनीय भयंकर भूल करता है । जैनधर्म भी सात्विक और नैतिक प्रवृत्ति का विधान करता हुआ मानवसंस्कृति तथा मानवजीवन के विकास के लिये विविध पुण्य के कामों का स्पष्ट उल्लेख और आदेश देता है । उपलब्ध भूतकालीन प्रामाणिक इतिहास से यह बात पूर्णतः संपुष्ट है कि कुशल शासक, सफल सेनापति, योग्य व्यौपारी, कर्मण्य सेवक और आदर्श गृहस्थ बनने के लिये जैनधर्म में कोई रुकावट नहीं है। इसी लिये विभिन्न काल और विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर जैनसमाज द्वारा संचालित आरोग्यालय, भोजनालय, शिक्षणालय, वाचनालय, अनाथालय, जलाशय और विश्रामस्थान आदि-आदि रूप से किये जानेवाले सत्कार्यों की प्रवृत्ति का लेखा देखा जा सकता है। जाति, देश, रंग, लिंग, भाषा, वेश, नकल, वंश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल में मानवमात्र एक ही है । अतः मानवमात्र को एक ही और समान ही समझो और मानव के हित में मानव की बिना किसी भी प्रकार की भेदभावना के श्रद्धापूर्वक सेवा करो। यह है जैनधर्म की अप्रतिम और अमर घोषणा-जो कि जैनतत्त्वज्ञान की महानता को विश्व के सभी धर्मों के सामने सच्चाई और वास्तविकता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा देती है। आत्मतत्व और ईश्वरवाद ईस्वी सन् एक हजार वर्ष पूर्व से लगा करके ईस्वी सन् बीसवीं शताब्दी तक के युग में याने व्यतीत हुए इन तीन हजार वर्षों में भारतीय साहित्य के ज्ञानसंपन्न प्रांगण में आत्मतत्त्व और ईश्वरवाद के संबंध में हजारों ग्रंथों का निर्माण किया गया। कुल मिलाकर लाखों ऋषि-मुनियोंने, तत्त्व-चिंतकों ने और आत्म-मनीषियोंने, ज्ञानियों तथा दार्शनिकों ने इस विषय पर गंभीर अध्ययन, मनन, चिंतन और अनुसंधान किया है। इस विषय को लेकर भिन्न भिन्न समय में सैकड़ों राज्यसभाओं में धन-घोर और तुमुल शास्त्रार्थ हुए हैं। इसी प्रकार इस विषय पर मतभेद होने पर अनेक प्रगाढ़ पांडित्य-संपन्न दिग्गज विद्वानों को देशनिकाला भी
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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