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________________ २२६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और जैसी ही स्थिति हो तो जानता हुवा भी यह कह दे कि मैं नहीं जानता।' ___ यहाँ पर असत्य बोलने का स्पष्ट उल्लेख है। यह भिक्षु का अपवाद मार्ग है । इस प्रकार के प्रसंग पर असत्य भाषण भी पापरूप नहीं है दोषरूप नहीं है । सूयगडांग सूत्र में भी यही अपवाद आया है । वहाँ कहा गया है: "जो मृषावाद दूसरे को ठगने के लिये बोला जाता है वह हेय है, त्याज्य है; परन्तु जो हित बुद्धि से या कल्याण भावना से बोला जाता है वह दोषरूप नहीं है, पापरूप नहीं है।" उत्सर्ग मार्ग में अनेषणिक आहार भिक्षु के लिये अभक्ष्य कहा गया है । वह उसकी कल्प की मर्यादा में नहीं है । परन्तु कारणवशात् अपवाद मार्ग में वह अनेषणिय आहार अभक्ष्य नहीं रहता । भिक्षु उसे ग्रहण कर सकता है। सूयगडांग सूत्र में स्पष्ट कहा जाता है कि " आधाकर्मिक आहार खानेवाले भिक्षु को एकान्त पापी कहना भूल है । उसे एकान्त पापी नहीं कहा जा सकता ।" “ अपवाद दशा में आधाकर्म आहार का सेवन करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता । एकान्तरूप में यह कहना कि इसमें कर्मबंध होता है-ठीक नहीं ।" किसी भिक्षुने संथारा कर लिया। भक्त और पान का जीवन भर के लिये त्याग कर दिया है । शिष्य प्रश्न करता है-. भंते ! यदि उस भिक्षु को असमाधि भाव हो जाय और वह भक्त पान मागने लगे तो देना चाहिये कि नहीं !" १ "तुसिणीए उवेहिज्जा, जाण वा नो जागति वइजा।" मिझोर्गच्छतः कश्चिद् संमुखीन एतद् ब्रूयात् आयुष्मन् श्रमग ! भवता पथ्यागच्छता कश्चिद् मनुष्यादिरूपलब्धः ? तं चैव पृच्छन्तं तूष्णीमावेनोपेक्षेत । यदि वा जानन्नपि नाहं जानामि, इत्येवं वदेत् । आ. २ श्रुत, ईर्याध्ययन, उद्देश ३. २ “ सादियं ण मुसं बूया, एस धम्मे वुसीमओ।" यो हि परवञ्चनार्थ समायो मृषावादः स परिहीयते । यस्तु संयमगुप्त्यर्थ न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषाय।" सूत्रकृतांग, अ. ८, गा. १९. ३ अहाकम्माणि भुजंति अण्णमण्णे सकम्मणा । उवलित्तेत्ति जाणिज्जा, अणुबलित्तेति वा पुणो ॥ ८ ॥ एएहिं दोहि ठाणेहिं ववहारो न विजइ । एएहिं दोहिं ठाणेहिं अगायारं तु जागए ॥९॥ सूत्रकृतांग, २ श्रुत. आधाकर्माऽपि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुजानः कर्मगा नोपलिप्यते । तदाधाकर्मेऽपि भोगेनावश्य कर्मबन्धो भवति, इत्येवं नो वदेत् । —टीका ४ अय किं कारणं प्रत्याख्याप्य पुनराहारो दीयते ?
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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