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________________ २२० श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ दर्शन और शक्ति उत्सर्ग से चिपट कर ही खर्च कर देने पर तुले हुये हैं । वे जीवन में अपवाद का सर्वथा अपलाप ही करते रहते हैं। उनकी दृष्टि में ( एकांगी दृष्टि में ) अपवाद धर्म नहीं, एक महत्तर पाप है । इस प्रकार के विचारक साधना के क्षेत्र में उस कानि हथिनी के समान हैं जो चलते समय मार्ग के एक ओर ही देख पाती है। दूसरी ओर कुछ साधक वे हैं जो उत्सर्ग को भूलकर केवल अपवाद को पकड़ कर ही चलना चाहते हैं। जीवन पथ में वे कदम-कदम पर अपवाद का सहारा लेकर ही चलना चाहते हैं। जैसे शिशु विना किसी सहारे के चल ही नहीं सकता। ये दोनों विचार एकांगी होने से उपादेय कोटि में नहीं आ सकते। जैन धर्म की साधना एकान्त की नहीं, वह अनेकान्त की सुन्दर और स्वस्थ साधना है। जैन संस्कृति के महान् उन्नायक आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिने अपने " उपदेशपद " ग्रन्थ में एकान्त पक्ष को लेकर चलनेवाले साधकों को संबोधित करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा है-" भगवान् जिनेश्वरदेवने न किसी वस्तु के लेने का एकान्त विधान किया है और न किसी वस्तु के छोड़ने का एकान्त निषेध ही किया है । भगवान् तीर्थंकर की एक ही आज्ञा है, एक ही आदेश है कि जो कुछ भी कार्य तुम कर रहे हो, उसमें सत्य-भूत होकर रहो, उसे वफादारी के साथ करते रहो।" ___ आचार्यने जीवन का महान् रहस्य खोलकर रख दिया है। साधक का जीवन न एकान्त निषेध पर चल सकता है और न एकान्त विधान पर ही। कभी कुछ लेकर और कभी कुछ छोड़ कर ही वह अपना विकास कर सकता है । एकान्त का परित्याग करके वह अपनी साधना को निर्दोष बना सकता है । साधक का जीवन एक प्रवहणशील तत्व है । उसे बाँधकर रखना भूल होगी । नदी के सातत्य प्रवहणशील वेग को किसी गर्त में बाँधकर रख छोड़ने का अर्थ होगा--उसमें दुर्गंध पैदा करना तथा उसकी सहज स्वच्छता एवं पवित्रता को नष्ट कर डालना। जीवनवेग को एकान्त उत्सर्ग में बन्द करना यह भी भूल है और उसे एकान्त अपवाद में कैद करना यह भी चूक है। जीवन की गति को किसी भी एकान्त पक्ष में बांधकर रखना हितकर नहीं। जीवनवेग को बांधकर रखने में क्या हानि है ! बांधकर रखने में, संयत करके रखने में तो कोई हानि नहीं है; परन्तु एकान्त विधान और एकान्त निषेध में बाँध रखने में जो हानि है-वह आचार्यप्रवर हरिभद्रसूरि के शब्दों में ही सुनिए १-" न वि किंचि वि अणुण्णातं, पडिसिद्धं वा वि जिगवरिंदेहिं । तित्थगराणं आणा, कजं सच्चेण होयत्वं ॥" -उपदेशपद
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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