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________________ १४८ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ में कुछ शिथिलता आ गई थी, परन्तु दोनों समय प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि क्रिया में आप बड़े कट्टर थे। वृद्धावस्था के कारण आपको आहोर में ही स्थायी रहना पड़ा था। आपके रत्नविजयजी (इस ग्रंथ के नायक ) और ऋद्धि-विजयजी ये दो शिष्य थे । वि. संवत् १९२४ वैशाख शु० ५ के दिन श्रीसंघाग्रह से महामहोत्सवपूर्वक आपने श्रीरलविजयजी को आचार्यपदारूढ़ किया था और श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी नाम से उनको प्रसिद्ध किया । संवत् १९३४ चैत्र कृ. अमावस को आहोर में आपका स्वर्गवास हुआ । ६८-श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी:-आपका जन्म वि. संवत् १८८३ पौष शु० ७ गुरुवार को अछनेरा रेल्वे स्टेशन से १७ मील दूर और आगरे के किले से ३४ मील दूर पश्चिम में राजपूताना के भरतपुर नगर में ओशवंशीय पारखगोत्री शेठ श्रीऋषभदासजी की धर्मपत्नी केशरवाई से हुवा था । आपका जन्म नाम रत्नराज था । बड़े भाई मानकचन्दजी व छोटी बहिन प्रेमाबाई थी। उदयपुर (मेवाड़) में श्रीप्रमोदसूरिजी के उपदेश से संवत् १९०३ वैशाख शु० ५ शुक्रवार को श्रीहेमविजयजी के पास आपने दीक्षा ली और नाम मुनि श्रीरत्नविजयजी रक्खा गया। ___ खरतरगच्छीय यति श्रीसागरचन्द्रजी के पास व्याकरण, न्याय, काव्यादि ग्रन्थों का अभ्यास और तपागच्छीय श्रीदेवेन्द्रसूरिजी के पास रहकर जैनागमों का विधिपूर्वक अध्ययन किया । संवत् १९०९ वैशाख शुक्ला ३ के दिन उदयपुर ( मेवाड़) में श्रीहेमविजयजीने आपको बृहद्दीक्षा और गणी ( पन्यास ) पद दिया। वि. सं. १९२४ वैशाख शुक्ला ५ बुधवार को श्रीप्रमोदसूरिजीने आपको आचार्यपदवी दी, जिसका महोत्सव आहोर ( मारवाड़ ) के ठाकुर श्रीयशवन्तसिंहजीने बड़े समारोह से किया और आपका नाम 'श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजी' रक्खा गया । वि. सं. १९२५ आषाढ़ कृ० १० बुधवार के दिन जावरा (मालवा ) में आपने श्रीपूज्य श्रीधरणेन्द्रसूरि को सिद्धकुशल और मोतिविजय इन दोनों यतियों के द्वारा श्रीपूज्यसुधार-सम्बन्धी नव कलमें स्वीकार करवा कर और उन पर उनके हस्ताक्षर करवा कर शास्त्रीय विधि-विधानपूर्वक महामहोत्सव सह क्रियोद्धार किया। इसी समय आपके पास भींडर (मेवाड़) १ आपका जन्म सोजत (मारवाड़) में सं. १८२६ वै. शु. ३ सोमवार के दिन गणधर चोपड़ा मुन्दरलालजी की पत्नी श्रीदेवी से हुवा था। जन्म नाम श्रीलालजी था। आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिजी के पास बीकानेर (मारवाड़) में सं. १८४२ मार्ग० शु० २ गुरुवार को आपने दीक्षा ली। आप तत्कालीन प्रकाण्ड विद्वान् थे और आप क्रियापात्र, निग्रन्थ और सच्चे तपस्वी ये। गच्छ में शैथिल्य देख कर आपने विक्रम संवत् १८८३ में क्रियोद्धार किया था । संवत् १९०९ कार्तिक शु० पूर्णिमा के दिन जोधपुर (मारवाड़-राजस्थान) में आपका स्वर्गवास हुआ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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