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श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ उपाश्रय की जो मस्जिद बना डाली थी, उसे तुड़वा कर फिर से उसको उपाश्रय का रूप दिया । आनन्दविमलसूरि आदि आचार्यों के प्रसादीकृत-' मासकल्पादि मर्यादा बोलपट्टक' सर्वत्र प्रसिद्ध कर गच्छ के साधु-साध्वियों को उत्कृष्ट मर्यादा में चलाए और जो शिथिल थे उनको गच्छ बाहर किये । चंद, सागर, और कुशल आदि शाखाओं के कितनेक शिथिलाचारियोंने आपका सामना भी किया, किन्तु उनकी परवाह नहीं करते हुये गच्छमर्यादा प्राने में आप कटिबद्ध रहे । किसी भोजक-कविने कहा है कि:
फिट चन्दा फिट् सागरा, फिट कुशला नै लेड़ा।
रत्नमरि घडूकता, भाग गई सब भेड़ां ॥१॥ आपके ३३ हस्तदीक्षित शिष्य थे, उनमें से वृद्धक्षमाविजयजी सदाचारप्रिय, विनीत, सिद्धान्तपाठी, गच्छमर्यादापालक और सहनशीलतादि गुणों के प्रधानधारक थे। और लघुक्षमाविजयजी भी गच्छमर्यादा के दृढ़पालक और अति लोकवल्लभ थे । आप वृद्धक्षमाविजयजी को आचार्यपदारूढ करके संवत् १७७३ आश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन उदयपुर ( मेवाड़) में स्वर्गवासी हुए।
६४-श्रीवृद्धक्षमासूरिजी:-जन्म संवत् १७५० खेतड़ी, पिता ओशवंशीय केशरी. मलजी, माता लक्ष्मीबाई, जन्मनाम क्षेम( खेम )चंद । आपने श्रीरत्नसूरि महाराज के पास ११ वर्ष की वय में दीक्षा ली थी । संवत् १७७२ में माघ शु० पांचम के दिन आपको श्रीविजयरत्नसूरिजी महाराजने सूरिपद दिया जिसका महोत्सव शा. नानजी भाणजीने बड़े समारोह से किया और साहमती श्राविकाने एक सहस्र स्वर्ण मुद्राओं ( मोहरों ) से आपकी चरणपूजा की थी। एक समय आप बनाश नदी उतर रहे थे, तब चित्रावेल आपके चरणों में लिपटा गई थी, परन्तु आपने उसे लेने की अंशमात्र भी अभिलाषा नहीं की। गच्छभार निभाते हुए आपने जीवन पर्यन्त ही श्रीवर्द्धमानतप किया था। आपके अठारह शिष्य थे उनमें से मुख्य शिष्य श्रीदेवेन्द्रविजयजी को सूरिपदारूढ कर निर्दोष चरित्र पालन करते हुए आप संवत् १८२७ में राजस्थान के प्रसिद्ध नगर बीकानेर में स्वर्गवासी हुए।
६५-श्रीविजयदेवेन्द्रसूरिजी:- जन्म संवत् १७८५ रामगढ में । पिता ओशवंशीय पनराजजी, माता मानीबाई, संसारी नाम दौलतराज । संवत् १८२७ बीकानेर में आपको सूरिपद मिला, आचार्यपदारूढ होते ही आपने जीवनपर्यन्त आयंबिल तप करने का नियम ग्रहण किया था। आपके १ क्षमा विजय २ खान्तिविजय, ३ हेमविजय और ४ कल्याणविजय ये चार अन्तेवासी थे । इनमें से क्षमाविजय को शिथिल और अविनीत जान कर आपने गच्छ बाहर कर दिया । खान्तिविजयजी सिद्धान्त-- पारगामी, प्रकृति के भद्र, परन्तु कुछ लोभी प्रकृति के