SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - ग्रंथ तपबल, चारित्रबल, आदर्श साधुत्व, मनशक्ति, विचारदृढ़ता, कष्टसहिष्णुता आदि विविध महत्वपूर्ण गुण और विशेषताओं को दिखानेवाली कोई मूर्त वस्तु तो हमारे पास नहीं है । इनकी प्रतीति तो उनके जीवनव्रत का अध्ययन करके ही की जा सकती है; परन्तु आप की विद्वत्ता का भान करानेवाली वस्तु जो श्री ' अभिधान राजेन्द्रकोष ' नाम से भारत और बाहर देशों साहित्यसेवा में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी है, बहुत कुछ पर्याप्त है । इस महाकोष की प्रतियाँ भारत की प्रायः सभी विश्वविद्यालयों, विशाल राजकीय अन्य विद्यालयों और प्रसिद्ध एवं अति समृद्ध पुस्तका - लयों में विद्यमान हैं। भारत और बाहर के अनेक लब्धप्रतिष्ठ विद्वानोंने जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । यह अर्धमागधी प्राकृत कोष जगतभर में अपने आकार में संभवतः एक ही है और ऐसे कोष की रचना का विचार भी विश्वभर में सर्व प्रथम आप के मस्तिष्क में ही जन्मा है । जितने encyclopaedia ग्रंथ आज विश्व के प्रदेशों की भिन्न-भिन्न भाषाओं में प्रकाशित देखे जाते हैं, मेरे विचार से यह महाकोष उनमें अग्रिम जन्म लेनेवालों में आश्चर्य नहीं, ज्येष्ठ ग्रंथ है । 6 ર शब्दम्बुनिघि ' नामक अप्रकाशित कोष भी आप की एक ऐसी ही महत्वपूर्व कृति है । वैसे आपने कुल ६१ ग्रंथों की रचना की है। उनमें से कुछ ग्रंथ ही अभी तक प्रकाशित किये जा सके हैं। शेष ग्रंथों को भी यथाशीघ्र प्रकाशित करने की अत्यन्त आवश्यकता है; लेकिन यह कार्य तो समाज के श्रीमन्त वर्ग का है । ' अभिधान राजेन्द्रकोष ' पर प्राप्त महत्त्वपूर्ण संगतियों का लेखन अगर किया जाय तो एक स्वतंत्र पुस्तक बन सकती है। और वैसे इस महाकोष से विद्वान्, भाषाविज्ञ जैन, वैष्णव, आर्यसमाजी और इतर क्षेत्रसेवी भलीविध परिचित ही हैं। विदेशी विद्वान् अंग्रेज, जर्मन, जापान, अमेरिकन, फ्रान्सीसी भी इससे कम परिचित नहीं हैं । फ्रान्सीसी विद्वान् सिल्व्हेन लेहोने लिखा है - " क्या ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्मों के क्षेत्र में कभी इसके जैसा ग्रंथ तैयार होगा । " सर ज्यॉर्ज ग्रीयर्सन विद्वान् लिखता है - " जिस ग्रंथ के साथ इसकी तुलना में कर सकूं ऐसा केवल एक मात्र ग्रंथ मुझे ज्ञात है और वह राजा राधाकान्तदेव का प्रसिद्ध शब्दकल्पद्रुम कोष है ।" हमारे भारतीय विद्वानों की संगतियाँ फिर इन संमतियों से और अधिक अर्थगंभीर ही हैं तो उसमें आश्चर्य ही क्या है; परन्तु उनको दे कर विषय बढ़ाना मैं ठीक नहीं मानता | ध्यान आकर्षित करने भर के लिये इतना ही संकेत पर्याप्त है कि प्रस्तुत ग्रंथ में जो देश के अति प्रसिद्ध जैनेतर विद्वानोंने प्रामाणिक लेख दे कर इस दिवंगतात्मा विद्वान् के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है, वह ही इसे महाविद्वान् की विद्वत्ता के सर्वमान्य होने को सिद्ध कर देती है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy