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________________ १२६ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-प्रथ बाहर आकर एक प्रशान्तआकृति त्यागीने समाज को आधिभौतिक की विषाक्त दिशा से अध्यात्मवाद के परम पावन मार्ग पर पुनः चलने को सनातन आदेश दिया। समाजने देखा-जिसका शरीर तपस्या से शुष्क काष्ट की भाँति सूख गया है और रह गया है मात्र हड्डियों का ढाँचा, दुबला-पतला शरीर प्रमाणोपेत धवल वस्त्रों से ढंका, परम सरल प्रकृति, बोली सीमाबद्ध-किन्तु मधुर और ज्ञानगरिमादायी । प्रथम नजर से देखने पर ही ज्ञात नहीं हो सकता था कि यह साधारण शरीरी साधु समाज में क्रान्ति जगा कर उसे पुनः सुव्यवस्थित कर देगा । जब गुरुदेवने जावरा में सं० १९२५ में कियोद्धार कर श्रीसंघ को वास्तविकतया श्रीवीर का धर्म सुनाया तो समाज इससे भड़क उठी। जिसके कारण महान् युगप्रवर्तक एवं क्रान्तिकारी को महापरिषह सहने पड़े, जिनका वर्णन अशक्य है । परंतु युग-दृष्टा, त्यागीन्द्रमुकुटकोहेनूर आते परीषहों से घबरा कर सत्य से पतित नहीं होते। अन्त में समाज को ज्ञात हुआ कि यति-समाज जैन संघ को गुमराह करनेवाला प्रामकोपदेश दे रहा है । फल यह हुआ कि संघसमाजने योग्य नायक के नायकत्व में वीर-संदेश को आत्मसात् किया और संजुटित हो गया। अध्यात्ममय आत्मसाधना में इस प्रकार समाज पुनर्गठित और व्यवस्थित होने लगा एवं उसका श्रेष्ठ प्रकार से संचालन होने लगा। वास्तव में गुरुदेव प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज सही अर्थों में विद्वान् थे, चरित्रवान् थे, संयमी थे, साहित्य-सृष्टा थे और थे महान् त्यागी। आपने कोरटा, जालोर, तालनपुर और भांडवपुर इन प्राचीन तीर्थों का उद्धार भी करवाय और समाजोन्नतिकर अनेक कार्य भी किये । जैन समाज आपके कार्यों का पूर्ण रूपेण उपकृत है । आज ऐसे हीत्यागी, विद्वान् , आर्ष-दृष्टा एवं क्रान्तिकारी युगवीरों के कार्यों का प्रताप है कि हम उज्ज्वल. मुखी और गौरवान्वित हैं। वंदन हो नवयुगप्रवर्तक के चरणों में ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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