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श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिः एक महान् साहित्य-सेवी
सौभाग्यसिंह गोखरु एम. ए., एल. एल. बी. 'साहित्यरत्न'
जैन संस्कृति के माहात्म्य के सम्बन्ध में प्रोफेसर मेक्समूलर, बेरिस्टर चम्पतराय, महान् विदुषी एनीबिसेन्ट और कई जैनाचार्य व सन्तों का प्रायः एक मत है । सभी यह कहते हैं कि " जैन धर्म में जो बारीकी है वह अन्यत्र कहाँ !" यह बात केवल जैन शास्त्रों का अध्ययन कर ही कहीं गई हो, सो नही है । इन सभी विद्वानोंने विश्व में प्रचलित सभी धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद ही यह तथ्यपूर्ण बात कही है।
जैन सिद्धान्तों का प्रचार विशेष कर आचार्यों और सन्तोंने ही किया है। श्रावक तथा अनुयायी इस ओर से निश्चिन्त से रहे हैं। हाँ, यह तो मानना ही पड़ेगा कि कुछेक विदेशी विद्वानोंने इस दर्शन के प्रति अपनी अभिरुचि दिखलाई और वे अपने सत्प्रयास में बहुत आगे बढ़ गए हैं। इन उद्भट विद्वानों ने या तो इसे अपने जीवन का एक लक्ष समझ कर यह सत्प्रयास किया या 'जीवन में-सत्यं शिवं सुन्दरम् क्या है ? ' इसकी खोज में अपने आपको खपा दिया । वस्तुतः इनका काम सराहनीय है। ऐसा करके इन्होंने विश्व का बड़ा उपकार किया है । ऐसे ही उद्भट विद्वानों और साहित्य-मनीषियों में श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरि का स्थान है, जिन्होंने अपनी आत्मा के कल्याण के साथ ही साथ विश्व की बड़ी ही सच्ची साहित्य-सेवा की है । अनेक सन्त तपस्या कर अपनी आत्मा को उन्नत बनाने में रत देखे जाते हैं । उन्हें उससे बाहर कुछ करना नहीं सुहाता । उन्हें अपने दर्शन के, जिस के अन्तर्गत वे दीक्षित हुए हैं, प्रसार अथवा प्रचार की भी चिन्ता नहीं रहती । वे शास्त्रों का अध्ययन व मनन न करते हों ऐसी बात नहीं; पर वे अधिकतर — स्वान्तः सुखाय' ही रहते हैं । अपने दर्शन का व्याख्यान करते भी हैं तो उनका अभिप्राय केवल अपनी सम्प्रदाय अथवा अपनी समाज को उससे विज्ञ करने या बनाए रखने के हेतु । आज जो दुनिया को सब से बड़ी बात मान्य है, व जिस का निशि-दिन प्रचार व प्रसार देखने में आता है वह यह कि 'सब के भले में अपना भला निहित है।' इस महान् तथ्य पर आज के कुछेक महापुरुषों का ही ध्यान एकाग्र हो पाया है और वे जी-जान से इस ओर जुट पड़े हैं। गांधीजी की अहिंसा जो जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है, विश्व में बड़े वेग से प्रश्रय पा रहा है और सभी राष्ट्र इस सिद्धान्त के तंत्र को स्वीकार करते, दिखाई दे रहे हैं । यह बात मैं मानने को तैयार हूँ कि 'जैन सन्त
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