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________________ ९२ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि-स्मारक-ग्रंथ (१७) सकलैश्चर्यस्तोत्र:-इस स्तोत्र में जम्बूद्वीपीय एक महाविदेहक्षेत्र में, धातकी. खण्ड के दो महाविदेह में और पुष्करवरार्धद्वीप के दो महाविदेह क्षेत्र में विद्यमान श्री सीमन्धर स्वामी आदि बीस विहरमान तीर्थंकर भगवन्तों की भक्तिपूर्ण हृदय से स्तवना की गयी है। यह २४ श्लोकप्रमाण स्तोत्र श्री गुरुदेवने वि. सं. १९३६ में बनाया है । यह श्री शान्तसुधारस. भावना, पंचसप्ततिशतस्थानचतुष्पदी और श्री प्रभुस्तवन-सुधाकर में मुद्रित हुवा है। ( १८ ) होलिका व्याख्यान (गद्य-संस्कृत ) भारतीय जनता फाल्गुन महिने के सुदि पक्ष में होली नाम का पर्व अश्लील चेष्टापूर्ण रीति से मनाती है। जो वास्तव में कर्मसिद्धान्तानुसार कर्मबन्धन करता है । इस अश्लीलतामय पर्व की उपपत्ति वास्तव में किस प्रकार और कैसे हुई इसका गुरुदेवने इस ग्रन्थ में वर्णन किया है। यह श्री राजेन्द्रप्रवचन कार्यालय, खुडाला से प्रकाशित ' चरित्रचतुष्टय ' में मुद्रित हुवा है । (१९) पंचसप्ततिशतस्थान चतुष्पदी:-रचना सं. १९४६ । साइज क्राउन १६ पेजी। पृष्ठ १७५ । प्रकाशक श्री राजेन्द्रप्रवचन कार्यालय, मु. खुडाला (राजस्थान)। तपागच्छीय श्री सोमतिलकसूरिविरचित ३५९ प्राकृतगाथा प्रमाण-सत्तरिसय ठाणा पगरणा (सप्ततिशतस्थान प्रकरण) ग्रन्थ जिसकी राजसूरगच्छीय श्री देव विजयरचित अति सरल संस्कृत वृत्ति भी है उसीके आधार पर यह ग्रन्थ गुरुदेवने सियाणा (राजस्थान ) में रह कर बनाया है । गुरुदेवने उक्त प्रकरणगत विषय के इस प्रकरण में पांच स्थान और भी अधिक परिवर्धित किये हैं। ग्रन्थ छः उल्लासों में विभक्त है। इसकी रचना भाँति-भाँति के दोहों-छन्दों-चौपाइयों और रागों में की है। यह प्रशस्ति के साथ सब मिल कर ५५९ पद्य प्रमाण है। (२०) प्रभु-स्तवन-सुधाकरः-भौतिकवाद के इस विलासी युग में प्राकृत और संस्कृत का प्रचार नहीं होने से साधारण जनता उक्त भाषाकीय ग्रन्थों और काव्यों से उचित लाभ नहीं ले सकती। अतएव उसके लिये देशीभाषा में साहित्य और काव्य होना ही लाभकर है । इसी वस्तुस्थिति को लक्ष्य में रख कर गुरुदेव श्रीराजेन्द्रसूरीशने चैत्यवन्दन, स्तुतिस्तवन और सज्झायों का निर्माण किया है । आप के निर्मित पद्यो में अपभ्रंश शब्द भी हैं, जो उनकी शोभा में अतीव वृद्धि करते हैं। गुरुदेवने समय-समय पर जो चैत्यवंदन, स्तुति, स्तवन और सज्झायें बनाई हैं वे प्रायः सब इस 'प्रभु स्तवन-सुधाकर' में संगृहीत हैं । गुरुदेवरचित इन देशी काव्यों में अर्थगांभीर्य, और अध्यात्मिक भाव परिपूर्ण रूप से विद्यमान हैं। आप के कृत स्तवनों में कितने ही स्तवन ऐसे भी हैं कि जो प्रसिद्ध-अध्यात्मयोगी श्री आनन्दघनजी के पद्यों का स्मरण
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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