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________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - ग्रंथ ऐसे ही गुरुदेव स्व और पर के जीवन को सफल बना सकते हैं । अतः अपने हित चाहनेवाले प्रत्येक व्यक्ति को इसी प्रकार के गुणों से युक्तं गुरु की सेवा-शुश्रूषा और भक्ति करनी चाहिये । ये उपरोक्त सारी बातें पूर्णतया गुरुदेव के जीवन में दिखाई देती हैं । त्याग, वैराग्य तो मानों साक्षात् आपके जीवन में साकार - मूर्तिमन्त होकर उद्दीप्त हो उठे थे । उनके त्याग और साध्वाचार के कठिन नियमों का पालन देखो कि बड़े-बड़े क्रूर - हिंसक भयानक पशु भी अपनी क्रूरवृति को छोड़कर शान्त बन जाते थे । फिर मानव के लिये तो कहना ही क्या है ? " निःस्पृस्य तृणं जगत् " यह सिद्धान्त जितना उच्च एवं आदरणीय है, उतना ही जीवन में चरितार्थ करना भी कठिन है । आपने इस सिद्धान्त को तो अपने जीवन का मुख्य ध्येय ही बना लिया था। और इसीको अपनाकर अन्य वस्तु की बात तो दूर रही परन्तु अपने शरीर का भी आपको तनिक भी मोह न था । सांसारिक - भौतिक पदार्थों की तो कोई कामना ही नहीं थी । वीतरागप्रणीत निःस्पृहभाव से ही अपनी आध्यात्मिक आरामें आप सदोद्यत रहते थे । जहाँ जीवन में शरीर पर भी इच्छा नहीं रहती वहीं " कार्य साधयामि देहं पातयामि " का सिद्धान्त जीवन के प्रत्येक रग-रग से प्रमाणित हो उठता है । धना इसी अटलता पर जीवन में साध्वाचार का जो आदर्श महान् तपस्वी गुरुदेवने पांचवें आरे या कलिकाल में प्रत्यक्ष बतलाया, वह हम सभी के लिये बड़े गौरव की वस्तु है । ऐसे महान् व्यक्ति ही अपने जीवन में दुस्सह परिषह एवं कठिनतम तप-त्याग के द्वारा अलौकिक विभूति बनते हैं । कहा भी गया है कि दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । her देवलोसु, केइ सिज्झन्ति नीरया ॥ ( दशवैकालिकसूत्रम् ) कठिन से भी कठिनतम कार्यों का आचरण करना, तप त्यागमय जीवन को बनानायही जीवन की सबसे बड़ी भारी हेतु है व यही मानव जीवन की एक अमोघ कसौटी है । इस कसौटी पर कस जाने के बाद ही व्यक्ति में आत्मीय प्रकाश झलक उठता है । बाईस प्रकार के दुःसह परिषहों को सहन करना किसी सामान्य व्यक्ति का कार्य नहीं हैं । वही अपने जीवन में परिषों पर विजय पा सकता है जिसने आत्मीय प्रगति-विधि ठीक तरह से समझली है । ऐसे महापुरुषों में शास्त्रोक्त साध्वाचार का यथार्थ पालन करनेवालों में गुरुदेव भी एक हैं जिनका आदर्श तप, त्याग और निःस्पृह भाव जनता को जीवन व्यतीत करने में बड़ा भारी प्रेरणादायी है । गुरुदेव की अर्द्धशताब्दी से उनके कार्यों को स्मरण कर सारी जनता उनके आदर्शमय जीवन से अपने जीवन को समुन्नत बनावें यही कामना है ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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