SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरि - स्मारक - ग्रंथ देवकुलिकादि के ऊपर दण्डध्वज एवं स्वर्णकलश - समारोपण करवाये । अन्त में शांति के निमित्त बृहच्छान्तिस्नात्र पूजा भणा कर उसके अभिमंत्रित जल की ग्राम के चारों ओर धारा दिला कर उत्सव को परिपूर्ण किया । ६४ "" आहोर के पूनमिया -‍ - गच्छ के लोगोंने भी श्री ऋषभ - जिनालय के लिये कुछ नये जिनबिंबों की अंजनशलाका कराने का कार्यक्रम उक्त मुहूर्त्त में ही खड़ा किया था और विधि - विधान कराने के लिये प्रलोभन देकर जयपुर से जिनमुक्तिसूरिजी श्रीपूज्य को लाये थे । गुरुदेवने उन श्री पूज्य को बुलाकर चेताया कि " ऋषभदेव का मन्दिर उत्तराभिमुख है । फा० ब० ५ का मुहूर्त उसकी प्रतिष्ठा के लिये अच्छा नहीं है, सदोष है, आप कोई दूसरा मुहूर्त्त निकाल कर यह काम कराईये । इस मुहूर्त में विघ्न है, आगे आप की यथा इच्छा । श्री पूज्यने कहा, क्या किया जाय ? ये लोग मानते ही नहीं हैं। अगर अंजनशलाका नहीं कराई जाय तो ठहरी हुई हमारी भेंट- पूजा विफल हो जाय । " अस्तु । अंजनशलाका हुई, उसमें अनेक उपद्रव हुए और उसके कुछ समय पश्चात् ही आहोर में ही श्रीपूज्यजी भी चल बसे । वे जयपुर भी पहुंच नहीं पाये । इस उत्सव में कितना उपद्रव हुआ ! यह सर्वत्र प्रसिद्ध है । ठीक ही है कि (6 1 सजन - केरी सीखड़ी, माने नहीं पछिताय । शानज खोवे आपरी, जग में होत हंसाय ॥ १ ॥ लोभ दुःखरो मूल है, यही अनर्थरो मूल । मान पान सब खोईये, अंत धूलरी धूल ॥ २ ॥ ७- सं० १९५६ का चोमासा गुरुदेवने शिवगंज में किया था। आप श्रावण कृष्णा ३ के दिन की रात्रि में एकाग्र ध्यान में विराजमान थे। उस समय एक काला नाग विष-वमन एवं फूंफाटा करता हुआ दिखाई दिया । प्रातःकाल में आपने अपने शिष्यों से कहा कि इस वर्ष भयंकर दुष्काल का पड़ना संभव है । भारत में हा-हाकार मच जावेगा और घास, अन्नादि की प्राप्ति में बहुत कष्ट रहेगा । उस वर्ष हुआ भी ऐसा ही । भारत में चारों ओर 'छप्पनीया दुष्काल ' पड़ गया । हजारों पुरुष - स्त्री अन्न के अभाव में, अगणित पशु चारे के अभाव में मर गये । बागरा ( मारवाड़ ) वाले वर्जीगजी सदाजीने अपने रचित ' छप्पनिया - दुष्कालरा - सलोका' में इस भयंकर काल का चित्र इस प्रकार चित्रित किया है माता बेटाने छोड़ीने चाली, मालवा कानीरी वाट निहाली ।
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy