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________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोश और उसके कर्ता । तो उत्पन्न किया हुआ पुण्य-पाप पुनः पुनः जन्ममरणादि भाव से निष्फल जायगा और यदि एकान्त अनित्य ही माना जाय तो पुण्य-पाप करनेवाला दूसरा और उसे भोगनेवाला दूसरा हो जायगा । इस लिये आत्मा में कथंचित् नित्यत्व और कथंचित् अनित्यत्व को अवश्य ही स्वीकार करना पड़ेगा। यह तो चैतन्य का दृष्टान्त हुआ, परंतु जड़ पदार्थ में भी — उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् ' द्रव्य का यह लक्षण अवश्य स्याद्वाद शैली से घटित होता है, जैसे सोने की एक कंठी के दृष्टांत सेः एक व्यक्ति सुनार की दूकान पर अपनी कंठी को गला कर उसका एक कडा बनवाता है । उस समय कडे का उत्पाद ( उत्पत्ति ) और कंठी का व्यय ( विनाश ) हुआ; परंतु सोना ( स्वर्णत्व ) कड़े और कंठी दोनों में वैसा ही ध्रौव्य (स्थाई) है । इस प्रकार जगत के सब पदार्थों में उत्पत्ति, व्यय और स्थाईत्व लक्षण अच्छी तरह घटित होते हैं और यही स्याद्वादशैली है । एकांत नित्य और अनित्य कोई भी पदार्थ नहीं माना जा सकता। नित्यानित्य होने से वस्तु जैसे अनेकांत है ऐसे सदसत् रूप होने से भी अनेकांत है। तात्पर्य यह है कि वस्तु नित्यानित्य की तरह सत् असत् रूप भी है । स्वरूपादि की अपेक्षा वस्तु में सत्व और पररूपादि की अपेक्षा से असत्व, अतः अपेक्षाकृत भेद से सत्यासत्व दोनों ही वस्तु में बिना किसी विरोध के रहते हैं। वस्तु स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल भावरूप से सत् और परद्रव्य-क्षेत्र-काल- भावरूप से असत् ; अतः सत् और असत् उभय रूप है । इस प्रकार स्याद्वाद का निरूपण करते हुए सप्तभङ्गी पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला है। सप्तभङ्गी आचार्यप्रवरने सप्तभङ्गी का लक्षण बताते हुए लिखा है कि " एकत्रवस्तुन्येकैक धर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी " प्रश्न रुप से एक वस्तु में एक एक धर्म की विधि और निषेध की विरोध रहित कल्पना यही सप्तभङ्गी है । प्रश्न सात प्रकार के हो सकते हैं वे इस प्रकार:१ स्यादस्ति, २ स्यान्नास्ति, ३ स्यादस्तिनास्ति, ४ स्यादवक्तव्यं, ५ स्यादस्ति अवक्तव्यं, ६ स्यान्नास्ति अवक्तव्यं, ७ स्यादस्ति नास्ति अबक्तव्यं स्यात् यह शब्द अव्यय है और अनेकांत को बतलानेवाला है। इस तरह सप्तभङ्गी के सातों भङ्गों पर बहुत विशद अर्थ समझाकर दिया है । इस प्रकार इस उपोद्घात में समवायखण्डनम् , सत्तानिरसनम् , अपोहस्य स्वरूप निर्वचनपुरस्सरं निरसनम् , अपौरुषेयत्वव्याघातः, जगकर्तृत्वविध्वंसः, शब्दाकाशगुणत्वखण्डनम् ,
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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