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________________ श्री अभिधान राजेन्द्र कोश और उसके कर्ता । ४ उत्तराध्ययनसूत्र-इसके ३६ अध्ययन हैं और इसके मूळ श्लोक २००० हैं । इस पर वादिवेताळशांतिसूरि की टीका, लक्ष्मीवल्लभीटीका, नेमचन्द्रसूरि की रचना की हुई लघुवृत्ति, भद्रस्वामी की निर्माण की हुई गाथा, नियुक्ति, चूर्णि आदि ४०३०० श्लोकप्रमाणों में ग्रंथ उपब्ध हैं। पीछे से और भी आचार्योंने इस ग्रंथ पर अच्छा प्रकाश डाला है । चूलिकासूत्र । १ नन्दिसूत्र-देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण द्वारा निर्मित ७०० मूळ श्लोकप्रमाण का ग्रंथ है। इस ग्रंथ पर मलयगिरि आचार्य की वृत्ति, चूर्णि, हरिभद्रसूरि की बनाई हुई. लघुटीका, चन्द्र. सूरि का टिप्पण आदि अनेक ग्रंथ मिलते हैं। २ अनुयोगद्वारसूत्र-यह ६ हजार श्लोक के प्रमाण में है। इस पर मल्लवारी श्रीहेमचंद्रसूरिने वृत्ति लिखी है। जिनदासगणिने चूर्णि, हरिभद्रसूरिने लघुवृत्ति आदि हजारों श्लोकों के प्रमाणों में ग्रंथ रचनायें की हैं । श्री जैन श्वेताम्बर समाज में ग्यारह अंग, बारह उपाङ्ग, दस पइन्ना, छः छेदसूत्र, चार मूळसूत्र और दो चूलिकासूत्र इस तरह आधुनिक समय में पैंतालीस आगम उपलब्ध हैं और ये सर्वमान्य हैं। इसमें किसी भी व्यक्ति का कोई मतभेद नहीं है। श्रीजैन श्वेताम्बर समाज में चाहे कितने ही गच्छ या मतमतान्तर हों; किंतु इन ४५ आगमों के संबंध में तो सबकी एक ही मान्यता, आदरभाव व प्रेम है। जहां कहीं भी गच्छों में भेद नज़र आते हैं वे अवसर करके क्रियाकांडों में हैं। मूल सैद्धान्तिक मतभेद नहीं है। सब एक ही ग्रंथों और शास्त्रों की मान्यतावाले हैं। इन आचार्यों के क्रियाकांडों के मतभेद से चाहे हम लोगों में जुदी २ मान्यतायें हो गई हों; किंतु सैद्धान्तिकदृष्टि से ऐसा कोई मतभेद नहीं है और आज तो इस स्वतंत्रता के युग में अपनी २ क्रियायें करते हुए सब को संगठन के एक सूत्र में मिल कर सिद्धान्तों का प्रचार करना चाहिये । सिद्धान्तों को एक तरफ रख कर केवल क्रियाकांडों को ही महत्व देना इस युग में शोभनीय नहीं माना जा सकता। उपोद्घात । संस्कृत भाषा में १३ पृष्ठों का उपोद्घात संशोधकों के द्वारा लिक्खा गया है जिसमें जैनदर्शन की मान्यताओं पर विशद विवेचन किया गया है। सबसे पहिले तो जैनदर्शन की उदारता के संबंध में प्रकाश डालते हुए बतलाया कि जैनदर्शन किसी भी व्यक्ति, मानवधर्म का द्वेषी नहीं है उसका तो कथन है कि: पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ १॥
SR No.012068
Book TitleRajendrasuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindrasuri
PublisherSaudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
Publication Year1957
Total Pages986
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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