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उत्तरी मध्य प्रदेश के जैन अभिलेखों की लिपि.....
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के अक्षरों में खड़ी लकीरों के सिरों पर इनके स्थान पर आड़ी रेखाएं मिलती हैं। ये आड़ी रेखाएं उतनी ही लम्बी हैं। जितने अक्षर की चौड़ाई ।
उत्तर भारत में नागरी लिपि के अभिलेखीय साक्ष्य १०वीं शती ई. के प्रारंभ के आसपास मिलने लगते हैं। इस क्षेत्र में कन्नौज के प्रतिहार शासक महेन्द्रपाल के वि. सं. ६५५ (८६८ ई.) के दिध्वा दबौली ताम्रपत्र को नागरी लिपि के पहले अभिलेख के रूप में स्वीकार किया जाता है । परन्तु इस अभिलेख के 'अ', 'घ' 'प', 'म' आदि अक्षरों में ऊपरी रेखा का पूरा उपयोग न होने तथा यत्र-तत्र न्यूनकोणों का प्रयोग होने (जैसे- 'म' में) के आधार पर इसके संक्रमण अवस्था का होने की संभावना भी व्यक्त की जाती है । ११वीं से १३वीं शती ई. के मध्य यह लिपि उत्तरी व मध्य भारत के विभिन्न भागों विशेषतः राजस्थान, उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में प्राप्त अभिलेखों में मिलने लगती है। इस दौरान के विवेच्य क्षेत्र के जैन अभिलेखों में नागरी लिपि के कुशल प्रयोग को देखा जा सकता है। इस अवधि के जैन अभिलेखों की नागरी लिपि वर्तमान नागरी लिपि से मिलती-जुलती है । ११वीं शती ई. के जैन अभिलेखों में नागरी विकासक्रम को दूबकुण्ड के एक ध्वस्त जैन मंदिर से प्राप्त वि. सं. ११४५ (१०८८ ई.) के प्रस्तर लेख पर आधारित अक्षर तालिका 'ब' में देखा जा सकता है। इस प्रस्तर लेख को लेखक व उत्कीर्णक ने वर्ण विन्यास की दृष्टि से सावधानीपूर्वक लिखा है। केवल 'ब' अक्षर को 'व' के लिए प्रयुक्त होने वाली आकृति के द्वारा दिखाया गया है। 'उ' की मात्रा को 'र' अक्षर के मध्य में दांयीं तरफ जोड़ा गया है व 'ऊ' की मात्रा को अक्षर की लम्बवत् रेखा के मध्य में बांयीं तरफ जोड़कर नीचे की तरफ घुमाव युक्त बनाया गया है। 'ऋ' का अंकन 'ऋषभ' शब्द में मिलता है। 'ए' को नीचे की तरफ नोंकयुक्त त्रिकोण के माध्यम से दिखाया गया है। 'घ' अक्षर संक्रमण के चरण को प्रदर्शित करता है। 'ध' को ऊपर की ओर बायीं तरफ जुड़ी सींग के समान रेखा के साथ व बिना रेखा के साथ, दोनों प्रकार से बनाया गया है। कहीं-कहीं 'धा' अक्षर के ऊपर आड़ा डंडा जुड़ा मिलता है। इस लेख में कुछ स्थानों पर 'त' और 'न' तथा 'च' और 'व' में भेद करना कठिन है।
१२वीं व १३वीं शती ई. में जैन अभिलेखों की नागरी लिपि के अक्षरों का आकार वर्तमान नागरी के अक्षरों जैसा हो गया। केवल 'इ' और 'घ' में कहीं-कहीं पूर्ववत् स्थिति दिखाई देती है तथा व्यंजनों के साथ जुड़ने वाली 'ए', 'ऐ. 'ओ' और 'औ' की मात्राओं में भी पूर्व में दिखाई देने वाले अंतर को देखा जा सकता है। इसके अनुसार 'ए' की मात्रा व्यंजन के पूर्व खड़ी लकीर के रूप में सिर की लकीर से सटी रहती है तथा 'ऐ' की मात्रा में एक तो वैसी ही खड़ी लकीर और दूसरी तिरछी रेखा व्यंजन के ऊपर लगायी जाती है। 'ओ' की मात्रा दो खड़ी लकीरों से बनायी जाती है जिनमें से एक व्यंजन से पहले और दूसरी उसके पीछे रहती है। 'औ' में वैसे ही दो लकीरें व एक वक्ररेखा व्यंजन के ऊपर रहती हैं। इस अवधि के जैन लेखों की नागरी लिपि के विकास को लगभग १२वीं शती ई. के ग्वालियर दुर्ग खण्डित प्रस्तर लेख" और वि. सं. १३१६ (१२६२ ई.) के भीमपुर जैन मंदिर प्रस्तर लेख पर आधारित अक्षर तालिकाओं को क्रमशः ब २' व 'ब ३' में स्पष्ट किया गया है।
ग्वालियर की कच्छपघात शाखा के रत्नपाल नामक शासक के उल्लेखयुक्त ग्वालियर दुर्ग से प्राप्त लगभग १२वीं शती ई. के खण्डित प्रस्तर लेख का प्रारंभ "सिद्धम चन्द्रप्रभस्य वदनां से होता है। इस लेख में प्रस्तर की एक अर्हत् मूर्ति का उल्लेख है। संभवतः यह लेख जैन धर्म के किसी धार्मिक कृत्य से संबंधित रहा होगा। इस अभिलेख के अधिकांश अक्षर वर्तमान सामान्य 'नागरी लिपि के अक्षरों के अनुरूप हैं, 'इस अभिलेख में 'इ', 'च', 'घ', 'ज' और 'श' के आकारों की पूर्ववत् स्थिति संक्रमण अवस्था को प्रदर्शित करती है। 'ए', 'ऐ', 'ओ' और 'औ' की मात्राओं के लिए शिरोभाग व पृष्ठभाग के दोनों ही रूपों का उपयोग मिलता है।
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