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प्राचीन बिहार में जैन धर्म - कलावशेषीय विश्लेषण डॉ. विमलचन्द्र शुक्ल
छठीं शती ई. पू. में जैन धर्म के तीव्र विकास और बौद्ध धर्म के उदय ने महत्वपूर्ण वैचारिक क्रान्ति को जन्म दिया। जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध दोनों को ही ज्ञान की प्राप्ति बिहार में स्थित क्रमशः जृम्भियग्राम तथा बोधिगया में हुई थी। इस प्रकार बिहार - भूमि दोनों ही महापुरूषों के दिव्य ज्ञान की साक्षी बनीं। यद्यपि जैन धर्म बौद्ध धर्म की तुलना में अधिक प्राचीन है। महावीर से बहुत पहले ही जैन धर्म बिहार में विद्यमान था । बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य का जन्म चम्पा जो भागलपुर से लगभग पाँच मील की दूरी पर स्थित है, में हुआ था | चम्पा नगरी अंग जनपद की राजधानी भी रही है। परन्तु महावीर के समय में यहाँ जैन धर्म की व्यापक प्रतिष्ठा स्थापित हुई और यह संकुचित भौगोलिक सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक भू-भाग पर विस्तीर्ण हुआ । परम्परा एवं अनुश्रुति के अनुसार बिम्बिसार और अजातशत्रु जैन धर्म के प्रति आग्रह रखते थे ।' उदायिन के विषय में यह जनश्रुति है कि उसने पाटलिपुत्र में जैन मंदिर का निर्माण करवाया था। संभवतः महापद्मनंद भी जैनधर्मानुयायी था। खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख में 'नंदराजनित कलिंग जिन सन्निवेश उल्लेख के आधार पर यह संभावना व्यक्त की गयी है कि नंदराज ने कलिंग में विद्यमान जिन की मूर्ति को हस्तगत कर लिया था । चन्द्रगुप्त मौर्य तो भद्रबाहु नामक जैनाचार्य के द्वारा निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय में दीक्षित कर लिया गया था । स्थूलभद्र के द्वारा पाटलिपुत्र में आहूत संगीति में ११ अंगो और १४ पूर्वी का पाठ निर्धारित किया। दक्षिण से वापस आने पर भद्रबाहु ने अंगो और पूर्वो के पाठ को असत् घोषित किया। निर्ग्रन्थ संप्रदाय में जो गण और शाखाएं ईसा पूर्व चौथी और तीसरी शती में उद्भूत हुईं, उनकी सूची कल्पसूत्र में प्राप्त होती है। इससे स्पष्ट है कि बिहार का क्षेत्र ईसा पूर्व चौथी - तीसरी शती में भी जैन गतिविधियों का केन्द्र बना रहा। परन्तु यह विस्मयपूर्ण है कि बौद्ध अवशेषों की तुलना में यहाँ प्राचीन जैन मंदिर एवं मूर्तियों के अवशेष अपेक्षाकृत अल्प संख्या में प्राप्त हुए हैं। जैनों की यह मान्यता है कि तीर्थंकरों के जन्म स्थान, निष्क्रमण तथा निर्वाण भूमि में मंदिर निर्माण अतिशय पुण्यकर होता है,
यथा
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जन्मनिष्क्रमणस्थान ज्ञान निर्वाण भूमिषु । अन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूलेषु नगेषु च ।। ग्रामादि सन्निवेशेषु समुद्रपुलिनेषु वा । अन्येषु वा मनोज्ञेषु कारयेज्जिनमंदिरम् ।।
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