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Sumati-Jnana में जहाँ उनके जीवन चर्या की चर्चा की गई है, वहीं उनके विवाह और परिवार की चर्चा भी है। हरिवंश पुराण०६ में बसन्तसेना वेश्या अपनी मां के घर से आकर सास की सेवा करती थी जिससे उसका पति प्रसन्न रहता था। इसके अतिरिक्त जैन सूत्रों और पुराणों में धात्री (सामान्य घरेलू कार्यों के कर्म हेतु). दासी, परिचारिकाओं का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त आभादासी, क्रीतदासी, दास्त्वदासी यमदासियों (युद्धवाली) के भी उल्लेख हैं। चम्पानगर की दासियों का उल्लेखनीय योगदान का वर्णन है। इस प्रकार जैन धर्म में नारी के विविध रूपों का चरित्र-चित्रण प्राप्त होता है।
उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जैन साहित्य में वर्णित अवनति एवं उन्नतिशील चरित्र-चित्रणों में नारी के उन्नतिशील चरित्र-चित्रण का महत्व अधिक दिखाई देता है जिन्होनें तीर्थकर आदि शलाकापुरूषों का जन्म दिया। सामाजिक नारी विविध रूपों में देशकाल तथा स्वभाव के अनुरूप विभिन्न प्रवृत्तियों में संलग्न रही है। वस्तुतः जहाँ धनी वर्ग की नारियों को मूलभूत सुविधाएँ यथावत् रहीं, वहीं जैनाचार्यों के प्रयास से मध्यम व निम्न वर्णी नारी की स्थिति में परिवर्तन नहीं हो सका। इतना अवश्य है कि धर्म दीक्षा की छूट से जैन संघ में सर्वाधिक भिक्षुणियाँ बन सकी और वे धर्म का पालन करती हुई मोक्ष को प्राप्त हुई। अतः अन्य धर्मों की भांति जैन धर्म में भी समाजोत्थान में सामान्यतः गृहस्थ नारी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
संदर्भ ग्रन्थ १. ऋग्वेद, १०/१०६/४, १०/१३६/२, शर्मा, गंगासहाय, संस्कृत साहित्य प्रकाशन, दिल्ली, १६७६ | घोषा, रोमशा, अपाला, विश्ववारा, सूर्या सावित्री, वाक् आम्मृणी स्त्रियाँ कवित्व शक्ति से युक्त कही गयी हैं। २. वही, १०/१३६/३, १०/१२५/१, ऋग्वेद में ऋषि, मुनि यति, तापस के अतिरिक्त वातरशनस शब्द का उल्लेख हुआ है जो तत्कालीन युग में श्रमण परम्परा के अस्तित्व के सूचक कहे जा सकते हैं। वातरशना शब्द मुनि का विशेषण है अर्थात् वात ही जिनका वस्त्र है। वेदों में वैसी किसी स्त्री के संदर्भ में इन शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। ३. जैन, जगदीश चन्द्र, जैन आगम साहित्य में समाज, वाराणसी, १६६५, पृ. २४५। ४. व्यवहारभाष्य-१, पृ. १३०। ५. बृहतकल्पभाष्य टीका, संघदास गणि, मलयगिरि और क्षेमकीर्ति, पुण्यविजय, आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर, १६३३-३८. भाग-१, १२५६: पिण्डनियुक्ति-३२६; भाष्य टीका-मलयगिरि, सूरत, १६३८: ज्ञार्तधर्मकथा, संपादन-एन. वी. वैद्य, पूना, १६४०, भाग-१६, पृ. १६६: कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र, वाराणसी, ३.३.५६.१० । ६. जैन आगम उत्तराध्ययन टीका, नेमीचन्द्र, बम्बई, १६३७, पृ. ६३। ७. भगवती आराधना, पृ. ६३८-१००२/ ८. प्रश्नव्याकरण टीका, अभयदेव, बम्बई, १६१६, १६, पृ. ६५ अ-८६ स; जैन, जगदीश चन्द्र, पूर्वोक्त, पृ. २४८ । ६. उत्तराध्ययन टीका, शांतिसूरी, बम्बई, १६१६, ४, पृ. ६३ अ। १०. दशवैकालिचूर्णी, जिनदासगणि, रतलाम, १६३३, पृ. ८६-६७।। ११. महापुराण, ६८/७१, जिनसेन कृत (भाग १ व २), संपादक-पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १६६५॥ १२. पदमपुराण, १६/२८, रविषेण (भाग १, २ व ३). संपादक-पन्नालाल जैन, काशी. १६१-५ १३. महापुराण, ४३/१००–११३, तुलनीय, मिश्र, देवी प्रसाद, जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन, इलाहाबाद, १६५८ का आधार, पृ. ११०-१११। १४. पद्मपुराण, ७३/६५; महापुराण, ४३/१०३, ४३/१०४, ४३/१०७, ४३/१११; उत्तराध्ययन टीका-०४, पृ. ८३, तुलनीय, मिश्र, देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. ११०।
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