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जैन धर्म में गृहस्थ नारी: एक ऐतिहासिक अध्ययन
डॉ. रामकुमार अहिरवार
नर-नारी जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं, अतः इन दोनों का सामाजिक सम्मान सहज स्वाभाविक है। यही कारण है कि प्रवृत्तिमार्गी वैदिक परम्परा' में तो ये समादरणीय रही हैं, वैदिकोत्तर निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा में भी इनको महत्त्व दिया गया। यद्यपि प्रारंभ में निवृत्तिमार्गी जैन एवं बौद्ध दोनों धर्मों ने अपने निवृत्तिमार्गी स्वरूप के कारण स्त्रियों के महत्त्व स्वीकृति के बावजूद उनकी संघ-दीक्षा के प्रति संकोच दिखाई देता है, किन्तु शीघ्र ही उन्हें संघ प्रवेश की अनुमति मिलती है और उनकी गृही उपासिका तथा भिक्षुणी जैसे प्रमुख भेद बनते हैं। गृही मर्यादा और गृहत्यागी संघीय स्वरूप को देखते हुए उन दोनों के लिए निश्चित भिन्न विधान बनाये जाते हैं, गृही त्यागी संप्रदायों में नारियों के इन्हीं नियमों-विधानों के प्रकाश में नारी की स्थिति एवं महत्त्व का गवेषणात्मक आकलन संभव है। यहां प्रस्तुत शोधपत्र में
जैन धर्म में नारी विशेषकर गृहस्थ नारी की स्थिति एवं महत्व का आकलन ही अभिप्रेत है। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि कालान्तर में जैन धर्म दिगम्बर एवं श्वेताम्बर जैसे दो संप्रदायों में विभक्त हो जाता है, और यहाँ उन दोनों संप्रदायों में नारियों के प्रति वर्णित दृष्टिकोण के प्रकाश में अध्ययन किया जायेगा।
जैन धर्म में गृहस्थ नारी का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है जिसके विविध रूपों तथा चरित्र-चित्रण का उल्लेख हुआ है, लेकिन साहित्य में उनकी स्थिति के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी बातें मिलती हैं। एक तो वे जो स्त्रियों के अवनति का चित्रण करते है और दूसरे वह जो नारियों की उन्नतिशील होने का चित्रण करते हैं। ये देशकाल तथा स्वभाव के अनुरूप विभिन्न प्रवृत्तियों में संलग्न रही हैं। लेकिन सामाजिक दृष्टि से नारियों का स्थान सम्मानजनक न रहा, उन्हें विश्वासघाती, कृतघ्न, कपटी और अविश्वासी कहा गया। व्यवहारभाष्य में उल्लेख है कि जिस गाँव व नगर में स्त्रियाँ शक्तिशाली हों, वह निश्चिय ही नाश को प्राप्त होता है। स्त्रियों को ताड़ने, मारने, पीटने का रिवाज था और स्त्रियाँ इस अपमान को चुपचाप सहन कर लेती थीं। ब्रह्मचारी और भिक्षु को हमेशा नारियों से दूरी बनाये रखने को कहा गया, क्योंकि व कर्म और शिल्प द्वारा पुरूषों को मोहित करने वाली होती हैं। जैन आगम, उत्तराध्ययन टीका तथा भगवती आराधना में स्त्रियों की अनेक दोषपूर्ण उक्तियों का उल्लेख है। जैन सूत्रों में स्त्रियों को मैथुनमूलक बताया गया है, जिनको लेकर कितने ही संग्राम हुए हैं। इस सम्बन्ध में सीता, द्रोपदी, रूक्मिणी, पद्यावती, तारा, कंचना, रक्तसुभद्रा, अहिन्निका, सुवन्नगुलिया किन्नरी, सुरूपा और विधुन्मति के उदाहरण महत्त्वपूर्ण हैं। विश्वासघाती नारियों में अगउदत्त कुमार की प्रियसी तथा वाराणसी के प्रधान श्रेष्ठी की पुत्री मदनमंजरी तथा दशवैकालिचूर्णी में वर्णित एक सेठानी (पिशाच की प्रेयसी) का उल्लेख है।
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