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Sumati-Jñāna
पर्यावरण से युक्त हैं। उनके बारह व्रत धन-धान्य की सुरक्षा अनुपम उपाय बतलाते हैं। दस धर्मों की कहानियाँ, मानसिक, वाचिक और शारीरिक प्रदूषित वातावरण की रक्षा करने में सहायक हैं। बारह भावनाएं प्राणिमात्र की रक्षा के सूत्र हैं। आवश्यक कर्म प्रशान्त अनुकूल वातावरण प्रस्तुत करने वाले हैं। उनकी चर्याएं सौम्य वातावरण का उत्पन्न करने वाली हैं। इनके मूल्यों में संरक्षण का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व होता है। स्वास्थय की अनुकूलता आहार शुद्धि है जिसे आज भी सभी तरह से उपादेय माना जा रहा है। उनकी सम्यक् साधना से सभी प्रकार का प्रदूषण समाप्त होता है। इससे संस्कृति की रक्षा भी होती है, इसलिए विचारकों ने साधना को सद्गुणों का विशाल वटवृक्ष कहा है और सद्गुणों की रक्षा एवं शुद्धि का उत्कृष्ट उपाय भी माना है । साधना आत्मशोधन है। इससे आध्यात्मिक मार्ग प्रबल होता है। इससे इच्छाएं, कामवासना आदि समाप्त होती हैं। यह एक ऐसा उपाय है जिससे 'परस्परोग्रह की भावना उत्पन्न होती है तथा जीवन के उत्थान का मार्ग भी मिलता है।
पर्यावरण के सूत्र में रक्षा ही रक्षा है पर जो असुरक्षा का कारण उत्पन्न हो गया है, उसे कैसे समाप्त किया जा सकता है। यह विचारणीय है। आज से हजारों वर्ष पूर्व महावीर ने जिस समाज की कल्पना की थी उसमें व्यक्ति के पतन को रोकने साथ-साथ भौतिक एवं जैविक संसाधनों के बचाने की बात कही थी। जैन आगमों के प्रथम सूत्र आचारांग' इस बात का साक्षी है। इसमें मनुष्य की अपेक्षा प्रथ्वी, जल अग्नि, वायु और वनस्पति की सुरक्षा का प्रथम प्रयास किया गया। यह इसलिए नहीं कि वे मूल्यहीन थे, अपितु इनसे ही व्यक्ति का मूल्य था और उनके संरक्षण से ही पर्यावरण संतुलित बना रहेगा। आगमों में मानसिक, वायु, जल, ध्वनि आदि प्रकार के प्रदूषणों पर भी ध्यानाकर्षित किया गया है। आज आगमों की इस चेतना को वस्तुपरक रूप में जनता को गुणात्मक दृष्टि से समझाने की आवश्यकता है क्योंकि विश्व जीवन की उत्कृष्टता का संपूर्ण स्वास्थय पर्यावरण में है ।
जैन आचार का स्वरूप
जैन आगम में आचरण को आचार कहा गया है। आचार में श्रमण और श्रावकों के व्रत, नियम, संयम आदि विशेषताओं का वर्णन मिलता है। शिष्टाचार, सदाचार, आराधना, चर्या आदि भी आचार कहलाते हैं परन्तु व्रती साधक की दृष्टि से आचार की परिभाषा इस प्रकार की गई है कि "अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल किए गए सम्यक् दर्शन में जो यत्न किया जाता है, उसे आचार कहते हैं।
शब्दकोष की दृष्टि से आचार आ + र् + छञ से आचार शब्द बना है जिसका अर्थ आचरण, व्यवहार, काम करने की रीति और चाल-चलन आदि से होता है। आचार या आचरण को चरित्र, चरण, चारित्र' आदि भी कहा गया है। प्राकृत शब्दकोष में आचरण या अनुष्ठान नाम दिया गया है।" नन्दीसूत्र में निर्ग्रन्थ श्रमणों में आचार पर प्रकाश डालते हुए कथन है कि आचार, गोपन, विनय, विनयफल, शिक्षा, भाषा, अभाषा, करण, यात्रा, नियमवृत्ति आदि सभी आचार हैं।" नन्दी सूत्र की हरिभद्रवृत्ति में ज्ञानादि की सेवन विधि को आचार कहा गया है। तत्वार्थ भाष्य में भी ज्ञानादि का बखान किया गया है उसे आचार कहा गया है। जैन परम्परा में आचार को पाँच प्रकार का माना गया है यथा-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार, वीर्याचार।
जैन आगमों में आचार को सर्वोपरि मानकर सर्वत्र सूक्ष्म विश्लेषण किया है जिसमें पांच व्रत, चार शिक्षाव्रत और तीन गुणव्रत की मूल आचार संहिता श्रावकों के लिए दी गई है। आचार के मानदण्डों में श्रावकों के लिए व्यसन मुक्त जीवन पर भी बल दिया गया है जो मानवता का शाश्वत मूल्य कहा जाता है। व्यसन मुक्त जीवन से घर, परिवार, समाज, कुटुम्ब, ग्राम, नगर, देश, राष्ट्र सभी उत्थान की ओर बढ़ते हैं। इससे मानवता लहलहाती है। जैन आचार दर्शन की एक अमूल्य घोषणा आहार संबंधी है जिसमें प्रकृति के उपादान तत्वों पर महत्व दिया गया है। जैन आचार में
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