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Sumati-Jnana क्षयोपशम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सभी जीवों के अपनी-अपनी योग्यतानुसार होते है। विशेष योग्यता से अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान भी संभव है। वस्तुतः ये सब ज्ञान भी केवलज्ञान के ही अंश हैं क्योंकि ज्ञानगुण तो एक ही है, वही आवरण के कारण अनेक रूप में होता है। पूर्ण आवरण हटने पर एक मात्र केवलज्ञान के रूप में प्रकाशमान होता है। आचार्य वीरसेन ने कसायपाहुड की जयधवला टीका के प्रारंभ में मतिज्ञान आदि को केवलज्ञान का अंश माना है। ___ जीव में एक साथ पाँच ज्ञान संभव नहीं हैं। अपितु एक साथ एक आत्मा में एक से लेकर चार ज्ञान तक ही हो सकते हैं। जीव को एक ज्ञान होगा तो मात्र "केवलज्ञान' ही रहता है, क्योंकि वह निरावरण और क्षायिक है, क्योंकि वह संपूर्ण ज्ञान है। अतः इसे अन्य किसी ज्ञान की अपेक्षा नहीं रहती। इसीलिए इसके साथ अन्य चार सावरण और क्षायोपशिक ज्ञान नहीं रह सकते। किसी जीव को दो ज्ञान होंगे तो मति और श्रुतज्ञान, तीन हों तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान
और अवधिज्ञान या मनःपर्ययज्ञान तथा चार हों तो मति, श्रुत अवधि और मनःपर्ययज्ञान संभव हैं। इसलिए पाँचों ज्ञान एक साथ नहीं रह सकते। आचार्य उमास्वामी ने भी तत्त्वार्थसूत्र (९/३०) में कहा भी है
एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नचतुर्म्यः। अर्थात् एक जीव में एक साथ चार ज्ञान तक हो सकते हैं। इससे अधिक नहीं होते, क्योंकि केवलज्ञान क्षायिक होता है। अर्थात् समस्त ज्ञानावरण कर्म का क्षय होने से होता है। इसी से वह अकेला होता है, उसके साथ अन्य क्षयोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकते। इसीलिए पाँच ज्ञान एक साथ किसी भी जीव में संभव ही नहीं हैं। __ ज्ञान के पूर्वोक्त पाँच भेदों में क्रमशः प्रत्येक ज्ञान का स्वरूप इस प्रकार है१. मतिज्ञान ज्ञान के पाँच भेदों में प्रथम मतिज्ञान है जो तदिन्द्रियाऽनिद्रिय निमित्तम्' अर्थात् इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थों को जानता है, वह मतिज्ञान है। दर्शनपूर्वक अवग्रह ईहा अवाय और धारणा के क्रम से मतिज्ञान होता है। इसे आभिनिबोधिक ज्ञान भी कहा जाता है। वस्तुतः मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से होने वाली मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध आदि मतिज्ञान की अवस्थाओं का अनेक रूप से विवेचन मिलता है, जो मतिज्ञान के विविध आकार और प्रकारों का निर्देशमात्र है। वह निर्देश भी तत्त्वाधिगम के उपयोगों के रूप में है। इसीलिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने कहा
मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताऽमिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' (१/१३) सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपाद ने कहा है कि मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध-ये मतिज्ञान के ही नामान्तर इसलिए हैं क्योंकि ये मतिज्ञानावरण कर्म क्षयोपशम रूप अन्तरंग निमित्त से उत्पन्न हुए उपयोग को विषय करते हैं। इनका “मननं मतिः, स्मरणं स्मृति, संज्ञानं संज्ञा, चिन्तनं चिन्ता, अमिनिबोधनं अमिनिबोधः -इस प्रकार की व्युत्पत्ति की है। __ इस प्रकार अतीत अर्थ के स्मरण करने या पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण ‘स्मृति है। पहले अनुभव की हुई वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता संज्ञा' है। अर्थात् “यह वही है' - यह उसके सदृश है - इस प्रकार का पूर्व और उत्तर अवस्था में रहने वाली पदार्थ की एकता, सदृशता आदि ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। इसे ही दर्शन-क्षेत्र में प्रत्यभिज्ञान' इस नाम से जाना जाता है। क्योंकि यह अतीत और वर्तमान उभय विषयक है। भावी वस्तु की विचारणा या चिन्तन को 'चिन्ता' कहते हैं। व्याप्ति के ज्ञान को भी चिन्ता कहा जाता है। जैन दर्शन में इसी चिन्ता को 'तर्क' या ऊहः' भी कहा गया है। अमिनिबोध भी मतिज्ञानबोधक एक सामान्य शब्द है। दार्शनिक क्षेत्र में इसे 'अनुमान' शब्द से भी अभिहित किया जाता है। क्योंकि साधन से साध्य के ज्ञान को
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