SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 344 Sumati-Jnana सम्यक् हो जाता है और सम्यग्दर्शन के अभाव में वही मिथ्या कहलाता है। इसीलिए सम्यग्ज्ञान को कार्य तथा सम्यग्दर्शन को कारण कहा है। क्योंकि जब तक दृष्टि सम्यक् न हो, ज्ञान सम्यक् नहीं हो सकता। इसीलिए सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान “सम्यक् होता है। ज्ञान के संबंध में जैन धर्म की यह मान्यता विशेष महत्व रखती है कि यहाँ ज्ञान के अभाव को तो अज्ञान कहा ही है, मिथ्याज्ञान को भी अज्ञान माना है। यहाँ इन दोनों में यह अन्तर विशेष द्रष्टव्य है कि जीव एक बार सम्यकग्दर्शन रहित तो हो सकता है, किन्तु ज्ञान रहित नहीं। किसी न किसी प्रकार का ज्ञान जीव में अवश्य रहता है। वही ज्ञान सम्यकत्व का आविर्भाव होते ही सम्यग्ज्ञान कहलाता है। आचार्य पुष्पदन्त भूतबलि कृत 'षट्खण्डागम' की आचार्य वीरसेन कृत धवला टीका (पुस्तक १ एवं ५) में इस विषय में प्रश्नोत्तर के माध्यम से अच्छा स्पष्टीकरण किया गया है जिसे पं. कैलाशचन्द्र जी शास्त्री ने अपनी 'जैन सिद्धान्त' नामक पुस्तक (पृ. १६३) में प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि मिथ्या दृष्टियों का ज्ञान भी भूतार्थ (सत्याथ) का प्रकाशन होने पर भी वे इसलिए अज्ञानी हैं, क्योंकि उनके मिथ्यात्व का उदय है। अतः प्रतिभासित वस्तु में भी उन्हें संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होता है। इसीलिए उन्हें 'अज्ञानी कहा जाता है। क्योंकि वस्तु स्वभाव का निश्चय कराने को 'ज्ञान' कहते हैं और शुद्धनय विवक्षा में सत्यार्थ के निर्णायक को 'ज्ञान' कहते हैं। अतः मिथ्यादृष्टि ज्ञानी नहीं है, साथ ही जाने हुए पदार्थ का श्रद्धान करना ज्ञान का कार्य है, वह मिथ्या दृष्टि में नहीं है, इसलिए उनका ज्ञान 'अज्ञान' की कोटि में ही आता है। ___ वस्तुतः जाने हुए पदार्थ में विपरीत श्रद्धा उत्पन्न कराने वाले 'मिथ्यात्व' के उदय के बल से जहाँ जीव में अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान उत्पन्न नहीं होता, वहाँ जो ज्ञान होता है, वह “अज्ञान' कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञान का फल नहीं पाया जाता। ___आचार्य वट्टकेर कृत शौरसेनी प्राकृत भाषा के श्रमणाचार विषयक प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ 'मूलाचार में ज्ञान का स्वरूप तथा इसके उद्देश्यों के विषय में साररूप में बड़े प्रभावशाली रूप में कहा है कि जेण तच्चं विबुज्झज्ज, जेण चित्तं णिज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज तं णाणं जिणसासणे।। १/७०।। जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज तं गाणं जिणसासणे।। ७१ ।। अर्थात् जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जाना जाये, जिससे मन की चंचलता रूक जाये, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिससे राग के प्रति विरक्ति हो, कल्याण मार्ग में अनुराग हो और सब प्राणियों में मैत्री भाव हो उसे ही जिनशासन में "ज्ञान' कहा है। इसीलिए मिथ्यात्व के सहचारी ज्ञान को मिथ्या या अज्ञान कहा जाता है। ज्ञान के भेद-आत्मा के चैतन्य गुण के परिणमन को उपयोग कहते हैं। इस उपयोग को ही जीव का लक्षण कहा गया है। इसके दो भेद हैं -ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। इसमें ज्ञानोपयोग के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान- ये पांच सम्यग्ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधि- ये तीन मिथ्याज्ञान, इस तरह ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं। सिद्धान्त ग्रन्थों में सम्यग्ज्ञान के मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल-इन पाँच भेदों का जो विवेचन मिलता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012067
Book TitleSumati Jnana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivkant Dwivedi, Navneet Jain
PublisherShantisagar Chhani Granthamala
Publication Year2007
Total Pages468
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy