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जैन धर्म दर्शन में सम्यग्ज्ञान : स्वरूप और महत्व
प्रो. फूलचन्द्र जैन
जैन धर्म में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र, इस रत्नत्रय रूप इन तीनों को एकत्र रूप में मोक्षमार्ग का साधन माना गया है। अतः इन तीनों की समानता मोक्षप्राप्ति में साधक है। मोक्षमार्ग में इन तीनों का समान महत्व है। प्रथम शती के आचार्य कुन्दकुन्द ने इन तीनों की परिभाषायें अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ समयसार (गाथा १५५) में करते हुए कहा है कि 'जीवादि सद्दहणं सम्मत्तं तेसिमधिगमो णाणं । रायादि परिहरणं चरणं एसो दु मोक्खपहो, अर्थात् जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष- इन पदार्थों का श्रद्धान करना सम्यकत्व (सम्यग्दर्शन) है, उनका ठीकठाक जानना सम्यक् ज्ञान है और राग-द्वेषादि का त्याग करना सम्यक् चारित्र है । यही रत्नत्रय-स्वरूप सम्यग्ज्ञान-दर्शन और चारित्र मोक्ष का मार्ग है। इसी तरह की बात उन्होनें मोक्खपाहुड (गाथा ३८) में कही है
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तच्चरूई सम्मत्तं तच्चगहणं च हवइ सण्णाणं । चरितं परिहारो परूवियं जिणवरिंदेहि ||
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अर्थात् तत्वरूचि होना सम्यग्दर्शन है, तत्वज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है और पाप का परिहार होना सम्यक्चारित्र है । वस्तुतः चैतन्य के प्रधान तीन रूप हैं- देखना, जानना और अनुभव करना । ज्ञान का इन सभी से संबंध है। सम्यग्दर्शन की तरह सम्यग्ज्ञान भी आत्मा का विशेष गुण है जो स्व एवं पर इन दोनों को जानने में समर्थ है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है जो जाणदि सो णाणं (प्रवचनसार ३५) अर्थात् जो जानता है वही ज्ञान आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम की धवला टीका (पुस्तक १, पृ. १४३) में भूतार्थ प्रकाशनं ज्ञानम्' अर्थात् सत्यार्थ का प्रकाश करने वाली शक्ति विशेष ज्ञान है। आचार्य पूज्यपाद ने 'जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञातिमात्रं वा ज्ञानं अर्थात् जो जानता है वह ज्ञान है ( कर्तृसाधन), जिसके द्वारा जाना जाय वह ज्ञान है (करण साधन ) अथवा जानना मात्र ज्ञान है ( भाव साधन ) ( सर्वार्थसिद्धि १ / ६) । इस तरह येन येन प्रकारेण जीवादयः पदार्था व्यवस्थितास्तेन तेनावगमः सम्यग्ज्ञानम् (सर्वार्थ. १/ ५) अर्थात् जिस-जिस तरह से जीव- अजीव आदि पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान है। ज्ञान के पहले सम्यक् विशेषण संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय (विमोह) जैसे मिथ्या ज्ञानों का निराकरण करने हेतु
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