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विन्ध्य प्रदेश की सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ
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स्वीकार करने में कई कठिनाइयों का उल्लेख किया है। जिन समवशरण के विकास को जिन चौमुखी मानने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि समवशरण के जिन ध्यान मुद्रा में बनाये जाने की परम्परा रही है और जिन चौमुखी के जिन कायोत्सर्ग मुद्रा में भी बनाए जाते हैं। सर्वतोभद्रिका का अंकन दिगम्बर स्थलों पर विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ । विन्ध्य क्षेत्र में दिगम्बर परम्परा प्रचलित है। यहाँ पर जैन तीर्थों के अतिशय क्षेत्र हैं। यहाँ सर्वतोभद्र जिन प्रतिमाओं के निर्माण की परम्परा हमें स्पष्ट दिखाई देती है जिनके कुल छः उदाहरण विन्ध्य प्रदेश से हमें प्राप्त हुए हैं। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न है -
खजुराहो में सर्वतोभद्रिका प्रतिमा का केवल एक उदाहरण मिला है जो वहाँ के पुरातत्व संग्रहालय में सुरक्षित है। इस प्रतिमा का पंजीयन क्रमांक १५८८ है । इसमें चारों दिशाओं में चार ध्यानस्थ जिन मूर्तियाँ बनी हैं जिनके साथ अष्टप्रतिहार्यों का भी अंकन है। जिनों में केवल दो को पहचाना जा सकता है। जटाओं एवं सर्पफणों के आधार पर एक को ऋषभनाथ (प्रथम तीर्थंकर) और दूसरे को पार्श्वनाथ ( तेइसवें तीर्थंकर) माना जा सकता है। प्रत्येक जिन के साथ उसके परिकर में १२ लघु जिन आकृतियाँ हैं। इस प्रकार चारों दिशाओं में जिनों के परिकर की ४८ जिन आकृतियाँ तथा ४ मुख्य जिन आकृतियाँ अर्थात् कुल ५२ आकृतियों का अंकन है। इस मूर्ति के ऊपर मंदिर जैसी संरचना भी बनी है जो स्वतंत्र रूप से एक लघु मंदिर को व्यक्त करती है ।
घुबेला संग्रहालय में दो सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएं हैं। प्रथम में ऋषभनाथ, अजितनाथ, नेमिनाथ और पार्श्वनाथ का अंकन है। खजुराहो की भाँति यहाँ भी ऋषभ के कन्धों पर तीन जटाएं लटकी हैं। उनकी यक्षी चक्रेश्वरी को पारम्परिक रूप में गरुड़ पर आरूढ़ दिखाया गया है। अजितनाथ का लांछन गज अंकित है साथ ही उनकी यक्षी रोहिणी को द्विभुजी - अभयमुद्रा और बीजपूरक से युक्त दिखाया गया है। नेमिनाथ का अंकन उनके लांछन शंख के साथ है एवं यक्षी अम्बिका भी आकारित है जो सिंहवाहिनी, आम्रलुम्बी एवं बालक सहित प्रदर्शित है। पार्श्वनाथ को सर्प लांछन के साथ-साथ सप्तसर्पफणों से युक्त उत्कीर्ण किया गया है। तीर्थंकर की यक्षी पद्मावती को द्विभुजी एवं सर्पफण छत्र सहित उत्कीर्ण किया गया है।
धुबेला संग्रहालय की दूसरी सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अष्टप्रतिहार्य युक्त है जिसमें ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर को लांछन सहित उत्कीर्ण किया गया है। सिंहासन के नीचे पाँच-पाँच उपासक अंकित हैं । "
पन्ना संग्रहालय में एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा इसी प्रकार की है जिसमें ४८ जिनों का उत्कीर्णन है। इनमें ३२ को कायोत्सर्ग मुद्रा में एवं १६ जिनों को ध्यान मुद्रा में निरूपित किया गया है।
शहडोल जिले से सर्वतोभद्रिका जिन की एक प्रतिमा प्रतिवेदित है जिसमें आठ ग्रहों को उत्कीर्ण किया गया है। इसमें जिन आकृतियाँ ध्यान मुद्रा में विराजमान है।
टीकमगढ़ जिले के अहाड़ नामक स्थान से एक सर्वतोभद्रिका जिन मूर्ति प्रतिवेदित है जिसमें तीर्थंकरों को ध्यान मुद्रा में दिखाया गया है। उनके शीर्ष पर छत्र है। परिकर में ऊपर मालाधारी है। इस जिन चौमुखी के ऊपर का हिस्सा मंदिर शिखर जैसा चन्द्रशाल डिजाइन में तथा क्रमशः संकुचित होता हुआ बना है । सर्वोच्च भाग पर दो आमलक बने हैं जो स्वतंत्र लघु मंदिर के रूप में इसके अस्तित्व को व्यक्त करते हैं। रीवा एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र से सर्वतोभद्र प्रतिमा के प्राप्त न होने का उल्लेख एक शोधार्थी ने किया है जबकि शहडोल की एक प्रतिमा का उल्लेख हम कर चुके हैं।
विन्ध्य क्षेत्र के पुरास्थलों से प्राप्त सर्वतोभद्र प्रतिमाओं का अवलोकन करने के बाद हमने यह पाया कि यहाँ ध्यान तथा कायोत्सर्ग दोनों ही मुद्राओं में जिनों को जिनचौमुखी अथवा सर्वतोभद्रिका जिन के रूप में आकारित करने की
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