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Sumati-Jnāna गणिकायें जो गणराज्यों के अंतर्गत सुनिश्चित आदशों का पालन करती थीं, वे अब वेश्याओं का नेतृत्व करते लगीं। गणिका और वेश्या के सम्मिश्रण की वजह से ही जैनागमों में वेश्या शब्द का उल्लेख नहीं के बराबर हुआ है। अपितु उसकी जगह गणिका शब्द ही सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इनके आवास को बेसियाघर (गणिका गृह) कहा गया है। इस प्रकार यह सहजता से समझा जा सकता है कि जैन युग में गणिका के नेतृत्व में गणिका शब्द से संबोधित की जाने वाली सभी वेश्यायें राजकीय वैभव का ही अंग बन गयीं।" गणिका के लक्षण एवं विशेषतायें गणिकाओं के रूप एवं गुणों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि ये पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण शरीर वाली, लक्षणों, मसातिलकादि व्यंजनों एवं गुणों से परिपूर्ण, प्रमाणोपेत समस्त अंगों-पगों वाली, चन्द्रमा के समान सौम्य आकृति से युक्त कमनीय सुदर्शन एवं परम सुंदरी होती थी। उस काल में गणिकाओं को ७२ कलाओं में कुशल, गणिका के ६४ गुणों से युक्त, २६ प्रकार के विषय गुणों में रमण करने वाली, २१ प्रकार के रतिगुणों में प्रधान एवं कामशास्त्र की पण्डित कहा गया है। संभवतः जिसकी रचना दत्तक या दत्तावैशिक ने विशेषकर पाटलिपुत्र की गणिकाओं के लिये किया था। गणिकाओं की सुप्त नौ अंगों से जागृत (दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, एक जिव्हा, एक त्वचा और मन) थी। वह १८ देशों की १८ प्रकार की भाषाओं मे प्रवीण, श्रृंगार प्रधान वेशयुक्त अर्थात् जिसका वेश मानों श्रृंगार का घर ही हो ऐसी थी। उसे गीत (संगीत विद्या), रति (काम क्रीड़ा), गान्धर्व (नृत्ययुक्त गीत नाट्य) में कुशल तथा मन को आकर्षित करने वाली, उत्तम गति-गमन से युक्त (हास्य, बालचाल, व्यवहार और उचित उपचार में कुशल), स्तनादिगत सौन्दर्य से युक्त बताया गया हैं। गणिकाओं की सम्पन्नता जैनागमों में वर्णित गणिकायें पर्याप्त धन-वैभव की स्वामिनी होती थीं। उनके पास निवास हेतु उत्तम मकान जिस पर ध्वजा फहराती रहती थी, विविध प्रकार के उद्यान तथा चल एवं अचल सम्पत्ति रहती थी। इसे राजा की ओर से पारितोषिक रूप में छत्र, चामर, बाल व्यंजनिका (चंवरी या छोटा पंखा) आदि प्रदान किये जाते थे। अपने आने-जाने के लिये गणिकायें यान विशेष (कर्णरथ) का प्रयोग करती थीं जिस पर ध्वजा लगी रहती थी।" गणिकागामी पुरूष उसके साथ ही रथ में बैठकर नगर के मुख्य द्वार से गुजरने में अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते थे। जैन ग्रन्थों में गणिकाओं के लिये प्रयुक्त विशेषताओं की सहस्सलभां (सहस्त्रलभा) शब्द का वर्णन मिलता है जिसका तात्पर्य गीत-नृत्यादि कलाओं से हजार मुद्रा का लाभ पाने वाली अथवा जिसका एक रात्रि का मूल्य सहस्त्र स्वर्ण मुद्रायें थीं। ये गणिकायें एक साथ कई पुरूषों को संतुष्ट कर अपने जीविका योग्य प्रचुर धनराशि प्राप्त करती थीं।" पत्नी के रुप में गणिका की नियुक्ति गणिकाओं का पर्याप्त सम्मान दिये जाने के साथ ही कभी-कभी उनकी नियुक्ति पत्नी के रूप में भी की जाती थी और उन्हें सच्चरित्र एवं संयमपूर्वक पतिव्रत धर्म में लीन रहने का निर्देश दिया जाता था। इसके विपरीत आचरण करने पर राजाज्ञा से उनका वध तक कर दिया जाता था।" अपरिग्रहीता के रूप में गणिकाओं का उल्लेख उपासक दशांग सूत्र से ज्ञात होता है कि स्वदारसंतोषव्रत के अतिचारों में अपरिग्रहीता गमन को भी सम्मिलित किया गया था। अपरिग्रहीता का तात्पर्य उस स्त्री से है जो किसी भी के द्वारा पत्नी के रूप में परिगृहीत या स्वीकृत नहीं है अथवा जिस तक किसी का अधिकार नहीं है। इनमें वेश्या आदि का समावेश होता है। इस प्रकार की स्त्री के साथ
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