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Sumati-Jnana परित्यक्ता स्त्रियां एवं विधवायें संभवतः भिक्षुणी बनना ज्यादा पसंद करती थीं। अतः पति के अभाव में वे वैराग्य ग्रहण कर संयमित जीवन बिताती हुई मोक्षोन्मुख" होती थीं। वैवाहिक प्रीतिदान एवं स्त्रियों की संपति विवाह के पूर्व कन्यायें अपने पितृकुल में प्रतिष्ठापूर्वक रहती थीं और किसी कारणवश उनका विवाह न हो पाने पर भी वे पिता की संपत्ति का समुचित उपभोग करती थीं। इसके उपरान्त वैवाहिक जीवन में प्रवेश करने के साथ-साथ वे विवाह के समय प्राप्त प्रीतिदान (जो कई पीढ़ियों तक चलता था) की एकमात्र उत्तराधिकारिणी होती थीं। विधवा हो जाने पर पति की संपत्ति की देखभाल वही करती थीं तथा पुत्रों के वयस्क होने के पूर्व तक समस्त कार्यों का संचालन करती थीं। यहां तक कि पुत्रों के विवाह आदि में भी भाग लेकर अपने परिवार का नेतृत्व करती थीं। इनके द्वारा व्यापारिक प्रक्रियाओं का भी संचालन किया जाता था। विवाहोपरान्त भी स्त्रियां अपने पितृकुल से आवश्यकतानुसार वस्तुएं प्राप्त कर सकती थीं।
संदर्भग्रन्थ
१ ज्ञातृकथांगसूत्र, १११६/१२७, पृ. ४३१/ २. ज्ञातृकथांगसूत्र, ११४/६ पृ. ३६०/ ३. अन्तकृतदशांगसूत्र, ३/१७, पृ.१६/ ४. उत्तराध्ययन सूत्र, २२८ पृ. २२६ / १. उत्तराध्ययन सूत्र, २२/६ पृ. २२६/ ६. आचारांग सूत्र, २/११३४८, पृ. ४११ ७. ज्ञातृकथांगसूत्र, १/१४/२८ पृ. ३६७। ८. उत्तराध्ययन सूत्र, २०१३, पृ.२१७/ ६ उत्तराध्ययन सूत्र, १२/२१, पृ. ११०/ १०. जैन, कोमल चन्द्र, जैन आगमों में नारी जीवन, पृ.१७। ११. विपाक सूत्र, ४/१४, पृ.६४/ १२. उपासकदशांग सूत्र, अ.१, सू. ४८ पृ. ४२-४३/ १३. विपाक सूत्र, ६१२, पृ.६६-१००; राजप्रश्नीय सूत्र, सू. ७, पृ. १। १४. ज्ञातृकथांगसूत्र, १११६ ११३८ पृ. ४३८/ १५. ज्ञातृकथांगसूत्र, ११४४३५, पृ. ३७०; उत्तराध्ययन सूत्र, अ. २२, पृ. २२६ / १६. ज्ञातृकथांगसूत्र, १५१६, पृ. १५८/ १७. उपासकदशांग सूत्र, अ. ८ सू. २४२, पृ. १७७।
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