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समसामयिक समस्याओं के संदर्भ में प्राचीन जैन संस्कृति की प्रासंगिकता
भी उपयोगी है।
भेदभाव व जातिवाद की समस्याएँ
जाति आधारित समस्याएँ देश व समाज की ज्वलंत समस्याएँ हैं। वर्ण व्यवस्था से ही जातिवाद अस्तित्व में आया। वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय रूप दिया गया जिससे करोड़ों मानव दास, अछूत और शुद्र के नामों से उत्पीड़न के शिकार हुए एवं धर्माधिकार व सामाजिक अधिकारों से भी वंचित कर दिए गए। वर्तमान में प्रताड़ित जातियाँ जागरूक हो गयी और उन्हें संरक्षण एवं अधिकार भी प्राप्त हो गए हैं। इस कारण अक्सर जाति संघर्ष होता रहता है और जातिवाद व सम्प्रदायवाद का जहर फैलता ही जा रहा है। जैन धर्म में मनुष्य - मनुष्य में भेद नहीं किया गया है, यहाँ तक कि मनुष्य व पशु को एक ही दृष्टि से देखा गया है।” ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र ये भेद प्राचीन जैन साहित्य में उपलब्ध नहीं होते हैं।" जैन धर्म ने सर्वप्रथम मानव जीवन एवं मानव समाज में समता या समानता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। पार्श्वनाथ व महावीर ने समता के मूल बिन्दु को सबसे पहले पहचाना। उन्होंने उद्घोष किया कि सभी आत्माएँ समान हैं और सभी आत्माओं में परमात्मा बनने की समान शक्ति है। प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र रहते हुए समान है उन्होंने सभी को समान अवसर का अधिकारी माना। भगवान के समवशरण की नवरचना की जाती है तब उसमें सभी मनुष्य, जाति, पशु, पक्षी एवं प्रत्येक प्राणी को सुनने बैठने एवं प्रश्न पूछने का अधिकार रहता है। भगवान महावीर ने संदेश दिया कि समदृष्टि बनो अर्थात् सभी पर समान नजर रखो, इसका गूढ़ार्थ बहुत गंभीर व विचारणीय है। वर्तमान की हजारों समस्याओं का निदान समता दर्शन में निहित है । दृष्टि जब सम होती है अर्थात् उसमें भेद नहीं होता तब किसी की उपेक्षा नहीं होती है और तभी सामंजस्य व सद्भाव का वातावरण बनेगा ।
धार्मिक क्षेत्र की समस्याएँ
वर्तमान में धर्म के नाम पर सबसे अधिक ठगा जा रहा है तथा कथित बड़े-बड़े संतो के आश्रमों में बड़े-बड़े आयोजन हो रहे हैं। दुभाग्य से जैनियों में भी बड़े-बड़े आयोजन होने लगे हैं। समस्या यह है कि धर्म अब धन के द्वारा ही हो रहा है। गरीब तबका समुदाय में सामाजिक रूप उपेक्षित है जिससे उसमें तनाव व्याप्त होता जा रहा है। यदि जैन धर्म के वास्तविक स्वरूप को अपनाया जाए तो यह समस्याएँ उत्पन्न ही नहीं होगी। जैन धर्म एक आत्मानुशान धर्म है। जैन धर्म में यज्ञ, हवन, विधि विधान आदि कर्ममाण्डों का जोरदार खण्डन है। * भगवान महावीर ने धर्म के क्षेत्र में मानव मात्र को समान अधिकार दिए थे। जैन धर्म में व्यक्ति पूजा पर नहीं व्यक्तित्व अनुकरण पर बल दिया गया है। जैन धर्म के अणुव्रत एवं महाव्रत सहित सभी नियम, सिद्धांत व व्रतों का उद्देश्य इस प्रकार है- व्यक्ति की इच्छाओं एवं कामनाओं पर नियंत्रण, व्यक्तित्व का उत्थान, मोक्ष प्राप्ति हेतु शुद्ध श्रेष्ठ अहिंसात्मक आचार एवं विचार करना, अपनी आत्मा को पहचानना एवं आत्मा के कर्मों से विरक्त शुद्धात्मा प्राप्त करना ही जैन धर्म है। जैन धर्म एक वैज्ञानिक धर्म है जिसमें अंधविश्वासों, भेदभाव एवं कर्मकाण्ड के लिए कोई जगह नही । जैन धर्म में कट्टरता नही उदारता है। जैन धर्म सभी धर्मों व जातियों के प्रति समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया। ब्राह्मण देवताओं को तिरेसठ श्लाका महापुरूषों में शामिल कर पूज्य बनाया साथ ही नारायण के शत्रुओं के प्रतिनारायण का पद भी दिया। जैन धर्म में समन्वय व समता है । यह एक वैज्ञानिक धर्म है ।
पर्यावरण संबंधी समस्यां
असंतुलित होते पर्यावरण की समस्या विश्वव्यापी है। भौतिक, जैवकीय एवं सामाजिक पर्यावरण के संतुलन, संरक्षण एवं संवर्द्धन में जैन सिद्धांतों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। जीव वैज्ञानिकों के मत में पर्यावरण की सुरक्षा अपने धर्म में अटूट आस्था व विश्वास द्वारा हो सकती है। जहाँ वैदिक धर्म में भूमि, जल, अग्नि, वनस्पति, नदी, पर्वत, विभिन्न
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