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वैदिक एवं श्रमण संस्कृति में इक्ष्वाकु परम्परा
डॉ. ईश्वरशरण विश्वकर्मा
विचार, वाणी एवं क्रिया के तात्त्विक चिन्तन की जिस पीठिका पर भारतीय चिन्तकों ने ऋत, सत्य एवं धर्म की आचारपरक जागतिक विचारणा का संस्कृति-वितान निर्मित किया वह वस्तुतः प्रज्ञा-प्रकर्ष, गत्यात्मक जीवन एवं सर्वमयता की वैयक्तिक तथा समष्टिगत अवधारणाओं पर आधारित था। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ऋ=गतौ जैसे गतिमूलक चिन्तन विकसित हुए। गति' भारतीय संस्कृति का आत्मिक बिन्दु है जो प्रकाश, प्रज्ञा, मेघा, ऊर्जा, ज्ञान, यति, ऋषित्व एवं परिव्राजकत्व का बोधक है। चिन्तन की इस योग-भूमि को अपनी ज्ञान-पिपासा, चंक्रमणशीलता तथा संबोधि से आर्ष परम्परा के ऋषियों, यतियों, मुनियों तथा भिक्षुओं ने उर्वर बनाया है, इसीलिए भारतीय संस्कृति की सृजनात्मक ने अनेक चिन्तन धाराओं को सृजित एवं प्रवर्धित किया है जिनमें वैदिक एवं श्रमण चिन्तन परम्पराएँ ऐसी मान्यताओं के रूप में स्थापित हुई जिनके संबंध में अब यह सर्वस्वीकृत है कि दोनों परम्पराओं के मूल उत्स एक ही हैं और दोनों ही परम्पराएँ समानान्तर चलती रहीं तथा एक-दूसरे को पोषित व प्रभावित करती रहीं। जैन चिन्तन में तीर्थकरों की तथा बौद्ध धर्म में प्रत्येक बुद्धों की दीर्घकालीन परम्पराएँ इस तथ्य को प्रमाणित करती हैं कि वैदिक ऋषियों की प्राचीनता एवं नैरन्तर्यता की तरह वैदिक एवं श्रमण परम्पराएँ प्राचीन, पारम्परिक एवं सहगामी हैं। आर्ष दृष्टि में भी चिन्तन की अनेक धाराओं का मूल उत्स एक ही माना गया है क्योंकि सर्वव्यापी सत्ता की कार्यशीलता में एक ही परमतत्त्व को स्वीकार किया गया है जिसने अपने निर्माण प्रक्रिया में अपने को अनेकानेक रूपों में अभिव्यक्त किया। प्रथमतः द्विधा विभक्त चिन्तन धारा को ब्राह्मण एवं श्रमण परम्परा के रूप में पहचाना गया। इसीलिए कहा जाता है कि भारतीय संस्कृति ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृतियों का समन्वित रूप है। वैदिक एंव औपनिषदिक संदर्भो से यह व्याख्यायित
वैदिक एवं श्रमण परम्परा के एकत्व, पारस्परिक आदान-प्रदान, सामाजिक चिन्तन एवं प्रभाव, धार्मिक एवं दार्शनिक मान्यताएँ तथा उनके विरोध एवं अनुगमन आदि प्रवृत्तियों को रेखांकित करने वाले अनेक पक्ष हैं। इनमें आर्यत्व के गुणों वाली तथा कोसल से सम्बद्ध इक्ष्वाकु परम्परा महत्वपूर्ण है जिनके संदर्भ वैदिक, जैन, बौद्ध एवं लोक परम्पराओं में प्रामाणिकता, तथ्यपरक तथा ऐतिह्य की विश्लेषणात्मक भूमिका के साथ मिलते हैं। इसीलिए नवीन अनुसंधानात्मक विश्लेषणों के आधार पर प्रस्तुत शोध लेख में दोनों संस्कृतियों के परस्पर आदान-प्रदान में इक्ष्वाकु परम्परा का योगदान गवेषणीय है।
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