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________________ दूगड़ शास्त्री के साथ जिनप्रतिमा तथा मुखपत्ती विषय पर चर्चा करके यहां के सकल संघ को प्रतिबोध देकर शुद्ध सत्य जैनधर्म का अनुयायी बनाया । 10. वि.सं. 1897 से 1907 (ई.सं. 1040 से 1850) तक रामनगर, पपनाखा गोंदलांवाला, किला- दीदारसिंह, किला-सोभासिंह, जम्मू, पिंडदादलखां, रावलपिंडी, पसरूर दिल्ली, अमृतसर, लाहौर, अम्बाला आदि पंजाब के अनेक ग्रामों तथा नगरों में सद्धर्म की प्ररूपणा द्वारा सैंकड़ों परिवार का शुद्ध जैनधर्म को स्वीकार करना। लुंकामतियों के साथ शास्त्रार्थ में विजय विरोधियों का डटकर मुकाबला और विजयपताका फहराना । 11. वि.सं. 1902 (ई.सं. 1845 ) में स्यालकोट निवासी 16 वर्षीय बालब्रह्मचारी युवक मूलचन्द बीसा ओसवाल भावड़े बरड़ गोत्रीय को गुजरांवाला में दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया और ऋषि मूलचन्द नाम की स्थापना की। इनको सुयोग्य विद्वान बनाने के लिये गुजरांवाला में वि. सं. 1907 (ई.सं. 1850) तक छह वर्षों के लिये यहाँ के सच्चरित्र संपन्न, बारह - व्रतधारी सुश्रावक जैनागमों के मर्मज्ञ जानकार लाला कर्मचन्द जी दूगड़ के पास छोड़कर आप अकेले ही सद्धर्म के प्रचार के लिये ग्रामानुग्राम विचरण करते रहे। 1846 ) को गुजरांवाला और रामनगर के रास्ते में आपने और श्री मूलचन्द जी ने मुंहपत्ती का डोरा तोड़कर मुंहपत्ती लेकर मुख के आगे रखकर बोलना शुरू किया। 12. वि.सं. 1903 (ई.सं. व्याख्यान तथा बोलते समय हाथ में 13. वि.सं. 1908 (ई.सं. 1851 ) को पंजाब से गुजरात जाने के लिये विहार किया। जैन तीर्थों की यात्रा, शुद्ध धर्मनुयायी सद्गुरु की खोज, श्री वीतराग केवली भगवन्तों द्वारा प्ररूपित आगमों में प्रतिपादित स्वलिंग मुनि के वेष को धारण करके मोक्ष मार्ग की आराधना और प्रभु महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन मुनि के चारित्र को धारण करने के लिये प्रस्थान किया। 14. वि.सं. 1912 (ई.सं. 1855) में आपने अहमदाबाद में तपागच्छीय गणि श्री मणिविजय जी से अपने दो शिष्यों मुनि श्री मूलचन्द जी तथा मुनि श्री वृद्धिचन्द जी के साथ श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैनधर्म की संवेगी दीक्षा ग्रहण की आप श्री मणिविजय जी के शिष्य हुए, नाम बुद्धिविजय जी रखा गया तथा अन्य दोनों साधु आप के शिष्य हुए नाम क्रमशः मुनि मुक्तिविजय जी तथा मुनि वृद्धिविजय जी रखा गया 15. वि.सं. 1919 (ई.सं. 1862 ) में पुन: पंजाब में आपका प्रवेश। इस समय आप के साथ आपके दो अन्य शिष्य भी थे। 16. वि.सं. 1920 से 1926 (ई.सं. 1963 से 1869 ) तक अपने उपदेश द्वारा निर्माण कराये हुए आठ जिनमंदिरों की पंजाब में प्रतिष्ठा की, रावलपिंडी, जम्मू से लेकर दिल्ली तक शुद्ध जैनधर्म का प्रचार लुंकामती ऋषि अमरसिंह से शास्त्रार्थ । 17. वि.सं. 1928 (ई.सं. 1871 ) को पुनः गुजरात में पधारे। वि.सं. 1929 (ई.सं. 1872 ) में अहमदाबाद में मुखपत्ती विषयक चर्चा संवेगी साधुओं, श्रीपूज्यों, यतियों (गोरजी) के शिथिलाचार के विरुद्ध जोरदार आन्दोलन की शुरूआत। 18. वि.सं. 1932 (ई.सं. 1875 ) में अहमदाबाद में पंजाब से आये हुए ऋषि आत्माराम जी को उनके 15 शिष्यों प्रशिष्यों के साथ स्थानकमार्गी अवस्था का त्याग कराकर संवेगी दीक्षा का प्रदान करना। श्री आत्माराम जी को अपना शिष्य बनाकर नाम आनन्दविजय रखना । शेष 15 साधुओं को उन्हीं के शिष्यों प्रशिष्यों के रूप स्थापना करना ( आनन्दविजय जी वि.सं. 1943 में पालीताना में आचार्य बने, नाम विजयानन्द सूरि) 19. वि.सं. 1932 (ई.सं. 1875 ) में आपकी निश्रा में मुनि आनन्दविजय ( आत्माराम ) जी तथा शान्तिसागर के शास्त्रार्थ में मुनि श्री आनन्दविजय जी की विजय । 24 20. वि.सं. 1932 से 1937 (ई.सं. 1875 से 1880) तक अहमदाबाद में आत्मध्यान में लीन । 21. आपने अनेक बार सिद्धगिरि आदि अनेक तीर्थों की यात्राएं संघों के साथ तथा अकेले भी की। 22. वि.सं. 1938 (ई.सं. 1881 ) चैत्र वदि 30 को अहमदाबाद में आप का स्वर्गवास । श्री आत्माराम जी महाराज सम्बन्धी मुख्य घटनाएं 1. वि.सं. 1894 (ई.सं. 1837 ) चैत्र सुदि 1 को लहरा गांव (पंजाब) में जन्म कपूर क्षत्रिय कुल में। 2. वि.सं. 1910 (ई.सं. 1853 ) 16 वर्ष की आयु में मालेरकोटला (पंजाब) में स्थानकमार्गी दीक्षा 3. वि.सं. 1921 (ई.सं. 1864) में शुद्ध मार्ग जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक धर्म पर श्रद्धा तथा प्रचार की शुरूआत। Jain Education International विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका For Private & Personal Use Only 50 www.jainelibrary.org
SR No.012061
Book TitleVijay Vallabh Sansmaran Sankalan Smarika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpadanta Jain, Others
PublisherAkhil Bharatiya Vijay Vallabh Swargarohan Arddhashatabdi Mahotsava Samiti
Publication Year2004
Total Pages268
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size51 MB
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