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उपरोक्त वर्णित दोषों से मानव का बचाव मुश्किल हो जाएगा। गुरुदेव ने कहा है-बिना शिक्षा के बालक व युवा वर्ग का मानव कच्चे पत्थर के समान है। जो खान से निकला है-टेढ़ा-मेढ़ा, भौंडा-भद्दा व कुरूप होता है। जब उस पर शिक्षक की कला रूपी विद्या का प्रभाव पड़ता है-उसे छील-छाल कर साफ सुथरा बनाकर अपने जौहर दिखाकर उसमें कई रूप भर देता है। अच्छे गुणों से अलंकृत हो विवेकशील, सुसंस्कृति व उन्नत बना देता
बुद्धि के चमत्कार : वर्तमान शिक्षा में सदाचार, कष्ट सहिष्णुता, त्याग, संयम, चारित्र, विनय, अनुशासन आदि वस्तुएं भी शामिल हो जाएं तो बाल-युवा वर्ग की बुद्धि में एक चमत्कारिक परिवर्तन महसूस होगा। अन्यथा उद्दण्डता, अक्खड़पन, बात-बात पर मारने-मारने की प्रवृत्ति, बेअदबी, बड़ों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार की कमी आदि से चारित्रिक पतन बढ़ जाएगा। जबकि शिक्षा से बुद्धि स्थिर रह कर सुसंस्कारित हो सत्पथ पर चलने को अग्रसर करेगी। यही बुद्धि का चमत्कारिक होना उसे शुभ पथ पर भेजेगा। 9. मां-बाप व अभिभावक गण की जिम्मेवारी : बालक प्रथम, मां से पैदा होने के बाद, शिक्षा ग्रहण करता है-इसलिए माता को प्रथम सुसंस्कारी होना आवश्यक होता है। फिर पिता के सहयोग से धीरे-धीरे नयी नयी शिक्षात्मक बातें सीखता है। पिता को भी धार्मिक संस्कारों से सुसज्जित होकर सुसंस्कारी होना आवश्यक है। बालक मां-बाप की अनुपस्थिति में उनके किसी मित्र या नज़दीकी रिश्तेदारी में जाकर कुछ नई शिक्षा
ग्रहण करने की कोशिश करता है-क्या हमने या बालक के मां बाप ने उस अभिभावक के गुणों आदि को दर्पण में देखा है ?बच्चे का मन बालपन में एक स्वच्छ दर्पण है-यहीं पर मां-बाप आदि को बच्चे को शिक्षित करने या करवाने के लिए स्वयं में भी सुसंस्कारित होने के गुण देखने होंगे।
एक बालक या युवा आपसे प्रश्न करता है कि हम मंदिर क्यों जाते हैं ? गुरुओं के पास क्या है-जो हम उनसे पूछने या मिलने जाएं या जैन धर्म क्या है, दूध पीने में हिंसा क्यूं नहीं है, फूल व नैवेद्य आदि मंदिर में क्यूं चढ़ाते हैं ? आदि उसके मन में अनेक प्रश्न हैं-क्या आप इतने शिक्षित हैं कि बच्चों को उनकी जिज्ञासाएं शान्त कर सकें ?बालक या युवक कल्पसूत्र वांचन सुन रहा है-उसमें भी कई शंकाए-जिज्ञासाएं आपको शांत करने की कला आनी चाहिए। मान लो कल्पसूत्र के प्रवचन में "भगवान महावीर के उपसर्गों का वर्णन चल रहा है तथा उसमें, प्रभु के पैरों पर चंडकौशिक ने जहर भरा डंक मारा, उनके पैरों में से लाल खून की बजाए सफेद खून की धारा बहती है, ऐसा वर्णन आता है। आपसे आपका बच्चा चाहे, वह युवक ही क्यूं ना हो, पूछता है-कि सफेद खून तो किसी के शरीर में नहीं होता तो भगवान महावीर के ही सफेद खून क्यूं निकला ?प्रश्न एक साधारण सा ही है-क्या आप मां-बाप, गार्जियन या शिक्षक के नाते उसे उसकी जिज्ञासा अथवा शंका का समाधान दे सकते हैं। इसलिए यहां पर हमारी सुसंस्कारी-शिक्षित होने की आवश्यकता है। उपरोक्त सफेद खून निकलने का वैज्ञानिक जवाब इस प्रकार दिया जा सकता है कि प्रभु
महावीर जब चंडकौशिक के बिल के पास ध्यानस्थ खड़े थे-तो उनके मन में उस जीव के प्रति अथाह ममतामयी विचार आ रहे थे-जैसे कि मेरा तेरा पूर्व जन्मों का साथ है। तुमने अपने कर्मों के कारण इस भव में सर्प का भव पाया है और मैं तेरे बुरे कर्मों के बंधन का कारण भी बना हूं-बुज्झ, बुज्झ अभी भी तुम समझो चंडकौशिक-मैं चाहता हूं तुम्हारा उद्धार होकर मुक्ति हो... आदि ममतामयी भावनाओं के कारण माता के समान प्रभु का खून भी दुग्ध समान मीठा निकला।" आदि स्वयं के ज्ञान से आप अपने बाल-युवा वर्ग की जिज्ञासा शांत कर उन्हें एक सुसंस्कारी जीव बना सकेंगे। यदि किसी कारण आप उसकी जिज्ञासा शान्त नहीं कर पा रहे हैं तो वर्तमान में विराजित गुरुदेवों से उनकी शंका समाधान करवाएं तथा कुछ स्वाध्याय करने के लिए पुस्तकों का सहारा भी ले सकते हैं। परंतु कभी उसे मिथ्या ना भटकाएं। जहां तक हो सके उनकी संतुष्टि करें। उपसंहार-बाल व युवा वर्ग को सुसंगठित कर एक मंच पर एकत्रित कर सामाजिक क्रांति लाएं तथा इस विघटित समाज को एक नई दिशा दिखाएं : आज भगवान महावीर के निर्वाण को लगभग 2530 वर्ष हो गए हैं तथा हम गुरुदेव स्व. श्री विजय वल्लभ जी की स्वर्ण-स्वर्गारोहण वर्ष मना रहे हैं। उस आचार्य की स्वर्गारोहण वर्ष मना रहे हैं, जिसने अपने जीवन काल में सभी संप्रदायों को ही मंच पर आमंत्रित कर उद्घोषणा की थी- "होवे कि ना होवे, मेरी आत्मा यही चाहती है कि आज के युग में साम्प्रदायिकता दूर होकर जैन समाज, मात्र श्री महावीर
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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