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विराट संसार का प्रांगण में आज पर्यत अनेक विचारधाराएं
तथा दार्शनिक चिन्तन उदयमान होता रहा और पुनः काल के गर्भ में अदृश्य हो गया। इनमें से कुछ ऐसी विशिष्ट शांतिप्रद एवं विकासशील सत्य विचारधाराएँ समय-समय पर प्रवाहित होती रही हैं, जिन से मानव, सभ्यता एवम् संस्कृति में सुख-शांति, आनंद मंगल, कल्याण एवम् अभ्युदय का विकास हुआ है। पंडित सोहन लाल शास्त्री जी के अनुसार- "सही विचारधाराओं में जैन दर्शन, जैन तत्त्वज्ञान एवम् जैन धर्म की आध्यात्मिक सटीकता अपना गौरवपूर्ण स्थान रखती है। जैन तत्त्वज्ञान ने मानव-धर्म के आचार-क्षेत्र और विचार - क्षेत्र दोनों क्षेत्रों में मौलिक क्रान्ति की है।" ऐसे सर्व-कल्याणकारी जैनाचार्य विजय वल्लभ सूरि जी का समाजोन्मुख होना स्वाभाविक एवम् प्रासांगिक है।
युगपुरुष गुरुदेव विजय वल्लभ विश्व कल्याण हेतु अवतरित ऐसे महामानव थे, जिनका उदय मानवता, धर्म तथा समाज विकास की श्रेष्ठतम भावना के विकास के लिए हुआ था। श्री वल्लभ गुरुदेव की जन्मस्थली भले ही बड़ोदरा रही हो लेकिन उनकी कर्मस्थली गुजरात के उपरांत मुम्बई, राजस्थान तथा पंजाब तक फैली हुई है। पू. गुरुदेव उदारमना, उदारचेत्ता एवम् व्यापक
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समाजाभिमुख संत आचार्य विजय वल्लभ
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सरीश्वर जी
सकारात्मक अभिगम युक्त दृष्टि लिए हुए थे। आप जाति-धर्म से परे आबालवृद्ध, नर-नारी सबके पूजनीय श्रद्धेय संत रहे हैं।
महामानव का प्राकट्य लोक कल्याण के लिए ही जमीं पर होता है। श्रद्धेय वल्लभ गुरुदेव ने अपना जीवन समस्त लोक कल्याण की दिशा में समर्पित किया। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व अहिंसा, संयम और तप का प्रभापुंज है। इस नयी दृष्टि से समाज में नई चेतना का उदय हुआ। भारतवासियों को स्वराज की आध्यात्मिक परिभाषा का बोध हुआ । अहिंसा की विधेयात्मक भूमि का ज्ञान हुआ। दास्ता की लोह शृंखला को तोड़ने की शक्ति का संचार हुआ।
गुरुवर विजय वल्लभ सूरीश्वर जी के समतापूर्ण दृष्टिकोण ने जाति एवम् साम्प्रदायिक विद्वेष को समाप्त किया। आपादग्रसित जीवों को दुःखों से मुक्त करने के लिए लोगों के मन में सोई हुई मानवता को जगाया। इस युगवीर संत ने राष्ट्रीय अखण्डता एवम् एकता के लिए सर्वधर्म समभाव तथा सद्भाव का मंत्र साधर्मिकों एवम् अन्य देशवासियों को दिया। उन्होंने भारत को पश्चिम की भोगवादी विलासिता पूर्ण सभ्यता एवम् संस्कारों से मुक्त होने का संदेश अपने व्याख्यानों एवम् साहित्य के द्वारा दिया। उनके मतानुसार 'विश्वमैत्री' ही भारतीय संस्कृति की चेतना है, अहिंसा उसकी प्राणवायु है, समन्वय उसका तन है, शांति उसका जीवन संगीत है ।
विजय वल्लभ संस्मरण संकलन स्मारिका
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डॉ. रजनीकान्त एस. शाह करजण (गुजरात)
अतः पाश्चात्य भौतिक संस्कृति का त्याग कर आध्यात्मिक तथा त्याग पूर्ण भारतीय संस्कृति को अपनाकर ही वह जीवित रह सकती है। अपनी संस्कृति से कटकर राष्ट्र का शिवम् नष्ट हो जाता है तथा वह शव मात्र रह जाता है। इसीलिए वल्लभ गुरुदेव ने राम-रहीम, अल्लाह - ईश्वर, जिनेश्वर और शिवशंकर की एकता का शंखनाद किया। उन्होंने कहा कि प्रभु के नाम अलग-अलग होते हुए भी उसका स्वरूप राग-द्वेष रहित वीतराग है। अतः धर्म के नाम पर लड़ना अधर्मपूर्ण एवम् अनुचित है।
गुरु वल्लभ ने धर्म- धर्म, मानव -मानव, संप्रदाय-संप्रदाय तथा राष्ट्र-राष्ट्र के बीच एकता स्थापित करने का संदेश दिया। प्रखर विद्वान जवाहर लाल पटनी के मतानुसार, “गुरु वल्लभ ने राम-रहीम, जिनेश्वर और श्रीकृष्ण, बुद्ध और वीतराग एक ही ईश्वर के विविध नाम बताकर धर्म सद्भाव का प्रचार किया।
सप्त व्यसन मुक्ति का संदेश : श्री वल्लभ गुरुदेव ने विश्वशांति, मानव और जीवमात्र के कल्याण तथा सुख-समृद्धि के लिए व्यसन मुक्त समाज की कल्पना की है। उन्होंने अपनी सप्त व्यसन त्याग पदावली में संसार में दुःखों के लिए व्यसनग्रस्त समाज को जिम्मेदार बताया है।
प्रबुद्धचेत्ता समाज इस बात को लेकर व्यथित है कि वैभवी होटलों में शराब पान के
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