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धर्म या
आशीष कुमार जैन, जयपुर
धर्म का भ्रम
संसार परिभ्रमण की सर्वथा समाप्ति के लिए श्री जिनेश्वर भगवन्तों ने जिनशासन की स्थापना की है। मोक्ष जाने का आमन्त्रण इसी का यथार्थ नाम 'धर्मदेशना' है। परमात्मा के वचन का एक भी अनुयोग ऐसा नहीं, जो आत्मा को संसार से विमुख कर संयम का पिपासु न बनाता हो। कर्मक्षय के एकमात्र हेतु से इस लोकोत्तर धर्मशासन की प्रत्येक आराधना विषयों के वमन, कषायों के शमन, इन्द्रिय दमन, आत्मस्वरूप में रमण अंततः मोक्ष गमन के लिए है। मोक्ष के अतिरिक्त जिसे कोई अन्य चाह न हो उसका नाम समकिती। जो आत्मा मोक्षार्थी नहीं वह वीतराग के धर्म का अधिकारी भी नहीं। मोक्ष की इच्छा में इतनी शक्ति है कि कि आत्मा को इच्छारहित बना देती है।
संसार अरण्य से निकलकर मोक्ष में जाने का एकाधिकार केवल दुर्लभ मनुष्यगति में है। मानव भव में जीव इतना समर्थ होता है कि जन्म-मरण की बेड़ियां तोड़ सक, पर यह संभव तभी है, जब आत्मा को जिनवाणी का आलम्बन मिले, उस पर श्रद्धा निरन्तर दृढ़तर होती जाए। पुण्योदय से प्राप्त विपुल भोग सामग्री भी उसे बोझ रूप लगे, उससे छूटकर मोक्ष जाने की उत्कृष्ट अभिलाषा जाग्रत हो जाए। मोहनीय कर्म इस इच्छा में सबसे बड़ा बाधक है। इस कर्म के दो भेद हैं (1) दर्शन मोहनीय (मिथ्यात्व) (2) चारित्र मोहनीय (अविरती) मिथ्यात्व के उदय से आत्मा शुद्ध तत्व को समझ नहीं पाता, अविरती के उदय से सम्यकू आराधना नहीं कर सकता।
ज्ञानियों की दृष्टि में संसार की प्रत्येक वस्तु दुःखरूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धी है। संसार के सभी सम्बन्ध स्वार्थजनित हैं। खून के रिश्ते मानों खून पीने के लिए बने हैं। सम्पत्ति की खातिर यहां भाई को भय बनते देर नहीं लगती। संसार का सुख सुख नहीं वरन मिथ्या सुखाभास है। यह सुख पराधीन है क्योंकि पर पदार्थों के संयोग से ही उत्पन्न हो सकता है। आत्मा को संसार में रुलते हुए अनन्त पुद्गल परावर्त व्यतीत हो चुके परन्तु संसार के नश्वर सुखों की लालसा, तुच्छ पदार्थों पर अनादिकाल की वासना और ममत्व यथावत्
है। पुण्य से मिली भोग सामग्री, उसके प्रति तीव्र राग ने अनंत बार आत्मा को नरकादि में दुःख भोगने को बाध्य किया है परन्तु पौद्गालिक सुखों की आसक्ति, इन्द्रिय सुखों की क्षुधा बढ़ती ही गई है।
ॐ विज्ञान प्रभावित इस काल में लोगों की लिप्सा सांसारिक पदार्थों के अधिकाधिक उपभोग की है। भोग विलास की प्रवृति पर नियन्त्रण, संयम की सलाह भी व्यक्ति को चुभती है। भौतिकवाद के वातावरण में मतिभ्रमित लोग उसी व्यक्ति को सफल मानते हैं जिसने प्रचुरमात्रा में भोगोपभोग के साधनों का साम्राज्य खड़ा किया हो । घर, दुकान, फैक्ट्री, बंगले, चमचमाती कारें, धन से तिजोरियां भरी हों। विषमता, विसंगति, विनाश और विकार प्रधानकाल का प्रवाह ही ऐसा विपरीत है कि प्रवाह पतित लोग कर्ज के बोझ तले दबकर भी फिल्मी चकाचौंध जैसा जीवन जीना चाहते हैं।
र जिनशासन-जिनाज्ञा के प्रति वफादार जीवात्मा की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न होती है। वह संसार में आसक्ति से नहीं वरन् अशक्ति से विवश होकर रहता है। वह प्रभु से नियमित भव निर्वेद (संसार प्रति अरुचि) की मांग दोहराता रहता है। कर्मबन्ध में कायर, कर्मोदय में सत्वशील, कर्म निर्जरा में उत्साही जिनभक्त तो सदैव वैराग्य अर्थात् सुख में अलीनता, समाधि अर्थात् दुःख में अदीनता इन दो तत्वों को आत्मसात् करने का पुरुषार्थ करते हुए मुक्ति मार्ग की
ओर आगे बढ़ता जाता है। इस दुषमकाल में विरक्त मन, वास्तविक धर्मी आत्माएँ विरली हैं। आज का कथित धर्म प्रायः लौकिक सुखों की लालसा में किया जा रहा है।
'मोक्ष का उपाय' कहा जाए या 'धर्म' दोनों एक दूसरे के पर्याय हैं। काल की विडम्बना कि इस कलिकाल में धर्म की परिभाषा, धर्म का स्वरूप, धर्म का उद्देश्य, धर्मक्रियाएँ, धर्माराधक, धर्मी की व्याख्या सब बिगड़ गई है। जिनाज्ञा की उपेक्षा, शास्त्र की बेदरकारी करने वाले धर्म के ठेकेदारों की मनमानी बढ़ गई है। जिनशासन के अधिकांश अधिकृत उपदेशक अब मोक्ष की बातों को उतनी तवज्जो नहीं देते बल्कि संसार सुखों का झूठा सब्जबाग दिखाकर विषयाभिलाषा की आग में घी डालने का काम करते हैं।
भगवान ने शासन की स्थापना संसार से छुड़ाकर जीव को मोक्ष में पहुंचाने के लिए करी है परन्तु समय की विचित्रता कि सरेआम
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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