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स इस तरह का देशविरति गुण-शुश्रूषा (धर्म सुनने की और सेवा करने की भावना) आदि गुण वाले, यतिधर्म (साधुधर्म) के अनुरागी, धर्मपथ्य भोजन (ऐसा भोजन जिससे धर्म का पालन हो) को चाहने वाले, शम (निर्विकारत्व शाँति) संवेग (वैराग्य), निर्वेद (निस्पृह), अनुकंपा (दया) और आस्तिक्य (श्रद्धा) इन पाँच लक्षणों वाले, सम्यक्त्वी, मिथ्यात्व से निवृत्त (छूटे हुए) और सानुबंध (अखंड) क्रोध के उदय से रहित-गृहमेधी (गृहस्थी) महात्माओं में, चारित्र-मोहनीय कर्म के नाश होने से, उत्पन्न होता है।
स्थावर और त्रस जीवों की हिंसा से सर्वथा दूर रहने को सर्वविरति कहते हैं। यह सर्वविरतिपन सिद्धरूपी महल पर चढ़ने के लिए सीढ़ी के समान है। जो स्वभाव से ही अल्प कषाय वाले, दुनिया के सुखों से उदास और विनयादि गुणों वाले होते हैं ,उन महात्मा -मुनियों को यह सर्वविरतिपन प्राप्त होता है।
“यत्तापयति कर्माणि तत्तपः परिकीर्त्तितम् ।” ____जो कर्मों को तपाता है (नाश करता है) उसे तप कहते हैं। उसके दो भेद हैं; 1. बाह्य। 2. अंतर। अनशनादि बाह्य तप है और प्रायश्चित आदि अंतर तप है।
बाह्य तप के छः भेद हैं; 1. अनशन (उपवास एकासन आंबिल आदि), 2. ऊनोदरी (कम खाना), 3. वृत्तिसंक्षेप (जरूरतें कम करना), 4. रसत्याग (छ: रसों में हर रोज किसी रस को छोड़ना), 5. कायक्लेश (केशलोंच आदि शरीर के दुख), 6. संलीनता (इंद्रियों और मन को रोकना)।
___ अभ्यंतर तपके छः भेद हैं; 1. प्रायश्चित्त (अतिचार लगे हो, उनकी आलोचना करना और उनके लिए आवश्यक तप करना) 2. वैयावृत्य (त्यागियों की और धर्मात्माओं की सेवा करना), 3. स्वाध्याय (धर्मशास्त्रों का पठन, पाठन, मनन श्रवण), 4. विनय (नम्रता), 5. कायोत्सर्ग (शरीर के सब व्यापारों को छोड़ना), 6. शुभध्यान (धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में मन लगाना)।
___ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नत्रय को धारण करने वालों की भक्ति करना, उनका काम करना, शुभ का विचार और संसार की निन्दा करना भावना है।
यह चार तरह का (दान, शील, तप और भावनारूपी धर्म अपार फल (मोक्षफल) पाने का साधन है, इसलिए संसार- भ्रमण से डरे हुए लोगों को सावधान होकर इसकी साधना करनी चाहिए।
साभार- 'त्रिषष्टी श्लाका पुरुष चरित्र'
गुरुदेव ने कहा था
कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर, समाज हित को मद्दे नज़र रखते हुए, सुधार या परिवर्तन किया जाए तो उसे देखकर प्राचीनता के महोवश अथवा ईर्ष्यावश विरोध करना उचित नहीं होता
शुद्धाचरण से अपने मन को मन्दिर के समान पवित्र बनाओ। पवित्र मन मन्दिर में ही परम कृपालु परमात्मा विराजमान होगें। मन को पवित्र बनाने के लिए शुद्ध आहार, शुद्ध विचार और शुद्ध विहार की आवश्यकता है।
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विजय वल्लभ संस्मरण-संकलन स्मारिका
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