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________________ तिरुवरलुबर तथा उसका अमर ग्रंथ विकाकुरल श्राप पर कठोर नियंत्रण रखता है। उसके लिए वह अब सर्व प्रालियों के प्रति दवा, निरामिष भोजना, ग्रामनिग्रह, ध्यान तथा योग्य का अम्बास और इस प्रणाली द्वारा आध्यात्मिक अल खथा दृष्टि शक्ति प्रावर दंभ, असत्य, क्रोध, हिंसा, परपीड़न इत्यादि से पराङ्मुख होकर अपने मन को विशुद्ध माता है। इस प्रकार के नियंत्रण से मिथ्यात्व के अनेक स्तर अपने पाप नष्ट हो जाते हैं और साधु की अन्तब्योति विकसित हो जाती है। वह अपने अंतर में अनुभव करता है कि यह परिदृश्यमान जगत स्वप्नवत् है-आज है, कल अन्तर्हित हो जायगा। इस कारण से सांसारिक वस्तुओं के प्रति उसकी जो आसक्ति होती है वह दूर हो जाती है और उसके मनश्चक्षु के सामने सत्य की यथार्थ मूर्ति प्रकाशित होती है। किंतु फिर भी सूक्ष्म वासना (लोभ) उसका पिंड नहीं छोड़ती। वह नाना रंगों में, नाना प्राकृतियों में प्राणियों को धोखा देती रहती है। बड़े बड़े धार्मिक भी उसके पंजे से छूटकार नहीं पाते। और जब तक उसका संपूर्ण विलय नहीं होता तब तक आत्मा पूर्ण अानंद की अधिकारिणी नहीं हो सकती। इसी लिए इस अंक का उपसंहार करते कवि ने लिखा है-'वासना कभी तृप्त नहीं होती, किंतु यदि कोई व्यक्ति वासना का त्याग करने के लिए समर्थ हो जाय तो वह तत्काल ही संपूर्णता प्राप्त कर लेस है।' इस प्रकरण के अंत में कवि ने कर्म का ो वर्णन किया है वह जैन परंपरा का खास विचार है-बाही में कर्म के कारण कुछ संचित या अव्यक्त शक्तियाँ रहती हैं, जो उपयुक्त उत्तेजन प्राप्त कर व्यक हो जाती हैं। ये संचित प्रवृत्तियाँ जीव को भले-बुरे काम करने की ओर प्रवृत्त करती हैं। जन्म-जन्मान्तरों में जितने भले-बुरे काम किये, भली-बुरी चिंताओं को मन में स्थान दिया, और इस जन्म में वह जितने कामों तथा जिवनी चिंताओं से युक्त होता है, उनकी एक समष्टि बनकर कुछ अव्यक्त रूप में रहती है, और कुछ व्यक्त रूप में परिणत होती हुई उदीयमान होती रहती है। इस जीवन के अंत में जितना कर्मफल अध्यक्त रहता है, उसी को वह भविष्यत् जीवन में अपने साथ ले जाता है, और यही उसके उस जीवन का पारन्ध्र या प्राक्तन कर्मफल अथवा भाग्य कहलाता है। इस परिच्छेद का सार यही है कि कर्म ही प्रधान है और कर्म के हाथ से बचना असंभव है। खताईसवें अध्याय में कर्म का विलय करने के लिए आप के प्रभाव का वर्णन किया गया है। कृच्छसाधन अर्थात् ब्राझ और प्रान्तरिक खप से कर्म बंधन शिथिल झे जाते हैं और मनुष्य अपने आपको मुक्त कर सकता है। अंत के तिरसठवें परिच्छेद में कह गया है कि मनुष्य दृढ संकल्प के द्वारा मंद भाग्य पर विजय प्राप्त कर सकता है। प्रथम अध्याव के बाद द्वितीय अध्याय में दूसरे पुरुषार्थ अर्थ का वर्णन है। इस खंड में खना और उसकी योग्यता, मंत्री की नियुक्ति, सेना, जासूस, मित्र की पहचान, चित्र का महत्त्व, अत्याचार का परिणाम, शत्रु से सावधान इन भरिच्छेदों के बाद कृषि, भिकारी, दान, यश आदि विषयों का वर्णन छोटे छोटे प्रकरणों में किया गया है। प्रका रंजन करनेवाला, चतुर और दबावान् रामा, सचमी और खेती में प्रवीण लोग, धीरस, बीरता, साहस आदि गुण इस सत्र का वर्णन इस खंड में है। कुरल के तृतीय काम खंड में किसी विशिष्ट प्रणयी युगल की प्रेम-गाथा है। इसमें नायक-नायिका के प्रथम साक्षात्कार से लेकर अंतिम मिखान तक का वर्णन अड़े निपुग्ण ढंग से किया गया है। इस खंड का प्रारंभ बड़े विचित्र ढंग से किया गया है। पहले एक रम्य उद्यान में मानक के सामने नाविका पड़ जाती है। दोनों की चार आँखें होते ही परस्पर एक दूसरे के प्रति प्रेम का संचार झेता है। सुवसी का खावख्य, युक्त विशाला देच, कारखों की चितबन, उन्नत उरुस्थख, युवक को पागल बना देते हैं। इसके बाद एक दो बार युबती उस सुधक के सामने और आई, पर प्रत्येक बार उसने अपने भावों को छिपाकर उसके प्रति अपनी रूचि बसाई, इस पर नायक कहता है-'वह मुझे जानने नहीं देती कि उसने मुझे देखा है किंतु अब सामान्य टि से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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