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________________ है । सिद्धों के आठ गुण प्रसिद्ध हैं। जैन परपस में बाठ कर्म माने गापार घाती और चार अघाती। उनमें चार घाती कर्म ही विशेष हैं। उनके विलय से अष्ट हो की प्राति सेवा है। वे हैं-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय। इनमें केवल समावरण के क्षब से केवल खना, केवल रसन्मावरण के क्षय से केवलदर्शन, पंचविध अंतराय के क्षय से दान, लाभ भोग, उपभोग, वीर्य आदि ॉच लब्धियाँ और मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व तथा चारित्र का आविर्भाव होता है। प्रति दिन पंच नमस्कार के समय सिद्धों की स्तुति करते हुए इन आठ गुणों का उच्चारण किया जाता है-अनंत ज्ञान, अनंतदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, निराबाध, अटल, अवगाहन, अमूर्त और अगुरुलधु। कुछ लोग आठ गुणों का अर्थ योगियों की अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा श्रादि सिद्धियों करते हैं। पर अलिमा श्रादि पुरण नहीं, वे योग से प्राप्त सिद्धियाँ हैं । योगभ्रष्ट होने पर थे सिद्धियाँ लुप्त हो सकती है। ऐसी परिस्थिति में ईश्वर को भी विनश्वर मानना पड़ेगा। इसलिए ईश्वर के आठ गुल्स चैनपरंपरा में सिखों के बताये हुई आठ गुणों से अतिरिक्त नहीं हो सकते । तिरुवल्लुवर के बाद प्रायः सब जैन संतों के इसी प्रकार की व्यापक भावना अपनाकर स्तुति की है। जैन परंपरा में चार आश्रमों में से जिस प्रकार सिर्फ सम्मार और अचमार धर्म की ही चर्चा है, उसी प्रकार तिरुवल्लुवर ने धर्म प्रकरण में गृहस्थ धर्म और यति धर्म का ही वर्णन किया है। धर्म शीर्षक प्रथम खंड में सागार धर्म अर्थात् गृहस्थ जीवनात्मक उत्तम पत्नी, उत्तम पिता, उत्तम प्रतिवासी तथा उत्तम मनुष्य बनने के लिए जितने गुण आवश्यक हैं उनकी शिक्षा १६ अध्यायों में दी गयी है और अंत के २४ वें परिच्छेद में बताया गया है कि यश की आकांक्षा से मनुष्य कैसे अच्छे काम में प्रवृत्त हो सकते हैं। सागार धर्म के बाद अनगार धर्म अर्थात् तपस्वियों के गुणों का विवेचन १३ अध्यायों में किया गया है। इस खंड के अंतिम अंडतीसवें परिच्छेद में भाग्य का विवेचन है। 'कुरल' के पहले अंश धर्म की विशेषता यह है कि उसमें मनुष्य जीवन के संबंध में आशापूर्ण भाष व्यक्त किया गया है। मनुष्य जीवन की सेहता बतलाते हुए कवि लिखा है--'मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ वर है सुसम्मानित पवित्र गृह और उसके महत्त्व की पराकाष्ठा है सुखशाली संतति।' कवि का वात्सल्य भाव कैसा मधुर है ! वह कहता है-'मनुष्य की सच्ची संपचि उसकी संताध है। पिता का पुत्र के प्रति सच्चा कतेव्य यही है कि वह उसे विद्वानों की परिषद् में सर्व प्रथम सम्मान के योग्य बजावे। पुत्र की रहन-सहन कैसी होनी चाहिए इसके लिए सब उसके पिता से प्रश्न करें कि किस पुण्य से आपको ऐसा पुत्र प्राप्त हुना है। बालकों के स्पर्श से परमानंद के सुख की प्राप्ति होते है और उनकी बोली से कानों की तृप्ति। जिसने बालक की तुतलाती बोली नहीं सुनी, क्या वह कह सकता है कि बांसुरी मधुर तथा सितार सुरीली है।' इसके आगे वह लिखता है-'सर्व भूतों के प्रति दगा और अतिथि सत्कार ये दोनों मनुष्य के प्रधान कर्तव्य हैं और मधुर संभाषण है उसका श्राभूषण कृतक्षना, न्याय-विधता आत्म-संयक, खमा, दान तथा परोपकार उसके अमूल्य गुण हैं। किंतु परदाररति, ईर्ष्या लोझ वृथा भाषण, अनिष्ट चिंता इत्यादि उसके अति भयानक दूषण हैं।' ___ प्राणी मात्र जिसे मृत्यु कहते हैं यह वो केवल बीच के शरीर का विधान है। शरीर के मास से मीमात्मा का अबसान नहीं होता। पार्तमानिक जीवन के बाद उसका भविष्यत् जीपम भी अनुलात रहता है। अपनी संतति को योग्य बनाने तक रहस्य अपने साधु श्रीचरण के फलस्वरूप गुणस्थान के अनेक सोपान अतिक्रमण कर डालता है। कुछ ऊँचे स्थान पर पहुँचने के कारण वह अब अपने सामने साधु जीवन के उच्चतर क्षेत्र को फैला हुश्री देखता है और उस क्षेत्र के उपयुक्त बनने के लिए वह स्वयं अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012060
Book TitleVijay Vvallabhsuri Smarak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Vidyalaya Mumbai
PublisherMahavir Jain Vidyalay
Publication Year1956
Total Pages756
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size24 MB
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