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स्वः मोहनलाल बाठिय
उसने दार्शनिकता का रूप लिया तथा भिन्न-भिन्न दर्शनों को जन्म दिया। अब वैसे ईश्वर तथा उसके अवतारों, पैगम्बरों आदि की मान्यता भी निरर्थक सी प्रतीत हुई। मनस्वी चिन्तक का ध्यान अन्तर्मुखी हुआ, बाहर से हटकर स्वयं पर आया, को हं पर केन्द्रित हुआ, को हं से सो हं तक की दूरी तय करता हुआ परम प्राप्तव्य की प्राप्ति में निष्पन्न हुआ। उसका लक्ष्य स्व का चरमतम आध्यात्मिक विकास, अर्थात आत्मा सें परमात्मा बनना हुआ ।
धर्मतत्व के स्वरूप विकास का जो संकेत ऊपर किया गया है, उससे ऐसा लग सकता है कि वह उसका ऐतिहासिक विकास क्रम है अर्थात जैसे जैसे सभ्यता का विकास होता गया वैसे-वैसे ही धर्म के स्वरूप का विकास होता गया। किन्तु ऐसा है नहीं। धर्म के तदप्रभृति भिन्न रूप-आदिम अन्ध विश्वास, जादू टोना, भूत प्रेतों की मान्यता, वृक्ष-पूजा, नागपूजा, योनिपूजा, लिंगपूजा, बहुदेवतावाद, एकेश्वरवाद, अवतारवाद या पैगम्वरवाद, अनीश्वरवाद, अध्यात्मवाद आदि सदैव से रहते आये हैं, और आज भी प्रचलित हैं। ये ही नहीं, आज तक का तथाकथित युक्तिवादी, विज्ञानवादी, सुसभ्य एवं सुसंस्कृत मनुष्य जिस प्रकार आत्मा-परमात्मा, इहलोक-परलोक, पाप-पुण्य आदि की सत्ता में विश्वास नहीं करता, धर्म का मखौल उड़ाकर स्वयं को परम नास्तिक कहने में गर्व मानता है, वर्तमान जीवन को ही व्यक्ति का अथ और अन्त सब कुछ मानकर चलता है, प्राचीन काल में भारतवर्ष के बार्हस्पत्य, लोकायत, चार्वाक आदि, यूनान और रोम के एपीक्युरियन्स व एग्नास्टिक्स, ईरान और मध्यएशिया के मानि एवं मजदक ऐसे ही विचारों का डंके की चोट प्रतिपादन करते थे।
वस्तुतः प्रायः सभी प्रकार के धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं और दार्शनिक विचारों का अस्तित्व अत्यन्त प्राचीन काल से ही रहता आया है, भले ही उनके रूप सुदूर अतीत में उतने परिष्कृत, विस्तृत या जटिल अथवा दार्शनिक न रहे हों जितने कि वे समय की गति के साथ होते गये। युग विशेषों, क्षेत्र विशेषों या जाति विशेषों में किसी एक प्रकार की प्रधानता रही तो किसी में दूसरे प्रकार की । प्रवृत्तिवादी मार्गों के साथ-साथ निवृत्तिप्रधान मार्ग भी चलते रहे, भौतिकवादिता के साथ-साथ आध्यात्मिकता भी चलती रही। और जैसे-जैसे धर्म के प्रत्येक प्रकार का विकास होता गया, ततः मानवी संस्कृति एवं सभ्यता का भी विकास होता गया । इतिहास-दर्शन के प्रकाण्ड मनीषी प्रो. आरनोल्ड जोसेफ टायनेबी भी यही कहते हैं कि -"धर्मसभ्यता की उपज नहीं है, सभ्यता धर्म की
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