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। स्वः मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
(५)मंखली गोशालक एवं उसका सिद्धांत नियतिवाद व आजीवक मत
भगवान महावीर तथा बुद्ध के समसामयिक आचार्यों में मंखली गोशालक अपने को तीथंकर बताता था। वह नियतिवादी था व उसका मत आजीवक कहलाता था। वह कर्म, पुरूषार्थ, उद्यम, प्रयत्न में विश्वास नहीं करता था। जो कुछ होता है, सब नियत है, पूर्व नियोजित है, ऐसा मानता था। उसके मत का कोई स्वतंत्र ग्रन्थ उपग्रन्थ नहीं है पर भगवान महावीर का पूर्व शिष्य होने व बाद में प्रबल विरोधी होने एवं उनकी सर्वज्ञता को चुनौती देने, वादविवाद पर उतर आने के कारण भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में उसकी उत्पत्ति, दीक्षा, कार्यकलाप आदि का विस्तृत विवरण मिलता है और भगवती एवं उपासक दशांस सूत्र व बौद्ध ग्रंथ मज्झिमनिकाय, अंगुत्तर विकाय में उसके सिद्धान्तो की विशद व्याख्या मिलती है।
भगवती सूत्र के अनुसार मंखजातीय मंखली चित्रपट दिखा कर भिक्षा मांगकर अपनी आजीविका चलाता था, गौशाला मे उसके पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम गोशालक रखा गया। बह बड़ा होने पर भगवान महावीर के संपर्क में आया व उनसे प्रभावित हो उनके पास दीक्षित हुआ। छः वर्ष तक उनके पास विद्याध्ययन कर शक्तिशाली तेजोलब्धि प्राप्त की और वह फिर भगवान महावीर से पृथक होकर अपने को जिन तीर्थकर, अंर्हत, सर्वज्ञ कहने लगा। उसे अष्टांग निमित्त का अच्छा ज्ञान था, अतः वह भविष्यवाणिया करने लगा व लोगों की जिज्ञासा शांत करता अतः उसके हजारों अनुयायी हो गये। भगवान महावीर की प्रतिष्ठा, प्रशस्ति और प्रभाव से उसे ईर्ष्या हो गई और उसने भगवान के समवशरण में आकर उन पर तेजोलब्धि का प्रयोग कर दिया, जिसे भगवान ने समभाव से प्रसन्नतापूर्वक सहन किया और भीषण अग्नि, ज्वाला से उन्हे शारीरिक कष्ट तो अवश्य हुआ पर वह उन्हें पराभूत नही कर पाई। तेजोलेश्या वापस लौटकर गोशालक के शरीर मे प्रवेश कर गई और उसके भीषण ताप से दाह ज्वर से पीड़ित होकर गोशालक सात दिन बाद मृत्यु को प्राप्त हो गया। इन सात दिनों में उसने चरम पान, गान, नाटय, अंजलिकर्म, पुष्कर-संवर्तक महामेघ, खेचवक ग्रधहस्ति, महाशिलाकंटक, संग्राम, चरम तीर्थंकरइन अष्ठ चरम तत्वो का आख्यान किया और प्रवृत्त परिहार नामक सिद्धांतो के माध्यम से जन्मांतरों की चर्चा की।
उपासकदर्शाय सूत्र के छठे अध्ययन मे कुण्डकौलिक श्रावक को साधनाच्युत
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