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मगध सम्राट अजातशत्रु (कौणिक) ने पूरण कश्यप से उसके सिद्धान्तों के विषय मे जिज्ञासा की, तव उसमे अपने द्वारा स्वीकृत अक्रियावाद का विवेचन किया। पूरण कश्यप किसी क्रिया का फल स्वीकार नहीं करता था । उसका आशय था कि किसी भी क्रिया का प्रत्यक्ष फल होता है, वह तो है ही, पर भविष्य में कर्त्ता को कोई फल नहीं मिलता। हिंसा, असत्याभाषण, अदत्तदान, व्यभिचार से कोई पाप - बन्धन नही होता, न अहिंसा, सत्यभाषण, दान, तीर्थयात्रा एवं संयममय जीवन के अवलंवन आदि से पुण्य बंधन ही होता है । उसके इस सिद्धान्त से परलोक, स्वर्ग, नरक आदि मान्यताओं का स्वतः निरसन हो जाता है और इसीलिए फल में विश्वास न रखने के कारण उसके मत का नाम अक्रियावाद पड़ा।
जैनागम सूत्रकृतांग में क्रियावाद, विनयवाद एवं अज्ञानवाद के साथ अक्रियावाद का भी प्रावादुको परतीथिकों या अन्य मतावलंवियों के सिद्धान्तों के रूप में उल्लेख हुआ है । सूत्रकृताग में प्रसंगवश अनेक स्थानो पर इसका संकेत मिलता है, जैसे एक स्थान पर कहा गया भगवान महावीर क्रियावाद, अक्रियावाद, विनयवाद तथा अज्ञानवाद को भलीभांति समझकर उसका समीक्षण कर दीर्घकाल तक संयम की आराधना समुद्यत रहे । ( सूवकृताग ) । दशाश्रुतस्कंध आगम की पष्ट दशा में भी अक्रियावाद का उल्लेख है ।
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दर्शन-दिग्दर्शन
अक्रियावाद के संबंध में कहीं सुव्यवस्थित विचार श्रृंखला नही मिलती, केवल यत्र-तत्र छुटपुट तथ्य मिलते हैं। यह नही कहा जा सकता कि यह विचारधारा किस रूप में विकसित हूई व जीवन एवं धर्म के विषय में उसकी क्या मान्यताएं: । पर यह निश्चित हे कि उसका विशद व समग्र स्वरूप अवश्य कुछ रहा होगा, क्योकि उस युग मे पूरण कश्यप के बड़ी संख्या में अनुयायी थे और महावीर एवं बुद्ध की तरह वह विश्रुत धर्मनायक था । मगध नरेश अजातशत्रु जैसे उस युग के प्रतापी एवं शीर्ष राजा का उसके सिद्धांतो के विषय में जिज्ञासा होना मात्र ही सिद्ध करता है कि उनका व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण था व उनका धर्मसंघ सुगठित एवं विशाल रहा होगा। आगे उसकी परंपरा कई कारणो से नही चल सकी, अतः उसकी पूरी विचारधारा इतिहास के पृष्ठों मे सुरक्षित नहीं रह पाई ।
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