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दर्शन-दिग्दर्शन
अवधिज्ञान
- भंवरलाल नाहटा
जैन धर्म में ज्ञान के पांच प्रकार बतलाये गये है - (१) मार्गज्ञान (२) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (४) मनः पर्यवज्ञान और (५) केबल ज्ञान।
___ जीव अपने मन और इन्द्रियों की सहायता से जो जानता और देखता है ऐसे विषय मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में आ जाते है। इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना, आत्मा की शुद्धि और निर्मलता से, संयम की आराधना से स्वयमेव प्रगट हो ऐसे अतीन्द्रिय
और मनोतीत ज्ञान में अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान माने जाते है। ज्ञानावर्ती कर्मों के क्षयोपशम से अवधिज्ञान और मनःपर्यव उत्पन्न होता है और ज्ञानावर्ती कर्मों के सम्पूर्ण क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होता है। जीव को जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है तब केवल यह एक ही ज्ञान रहता है, बाकी के चारों ज्ञान का स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं रहता । केवलज्ञान मे ये चारों ज्ञान विलीन हो जाते हैं। जिस जीव के केवलज्ञान प्रगट हो जाय वह जीव इसी भव में मोक्षगति पाता है। केवलज्ञान के बाद पुनर्जन्म नहीं।
‘अवधि' शब्द का प्राकृत-अर्द्धमागधी रूप 'ओहि' है । अवधिज्ञान के लिए प्राकृत में 'ओहिणाण' शब्द व्यवहृत होता है।
___ अवधि शब्द का एक अर्थ होता है मर्यादा, सीमा। इस मे कुंदकुंदाचार्य ने अवधिज्ञान का सीमा ज्ञान रूप में उल्लेख किया है।
व्युत्पत्ति की दृष्टि से 'अबधि' शब्द अव + था से बना है। अव अर्थात नीचे और धा अर्थात बढते जाना, अधो विस्तार भविन धावतीत्यवधिः । क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञान जितना ऊपर की दिशामे जितना विस्तार पाता है उससे अधिक नीचे की दिशा मे विस्तार पाता है। इसलिए यह अवधिज्ञान कहलाता है। अवधि शब्द का मात्र मर्यादा ही अर्थ ले तो मति श्रुत, अवधि और मनः पर्यव ये चारों ज्ञान मर्यादा वाले हैं, सावधि है एक केवलज्ञान ही अमर्यादा, निराध है। इस लिए अवधिशब्द के दोनो अर्थ लेना अधिक उचित है।
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