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। स्व: मोहनलाल बाठिया स्मृति ग्रन्थ
साधक/श्रमण अथवा श्रावक की दैनिक चर्या जब इन आवश्यकों से सम्पृक्त सम्पन्न होती है, तब वह वस्तुतः सन्मार्गी हो जाती है। इन्द्रिया
इन्द्रिय शब्द के मूल में शब्द है-इन्द्र। इन्द्र शब्द का एक अर्थ है आत्मा। आत्मा सर्वथा अमृत द्रव्य/तत्व है। इन्द्रिया दो रूपों में विभक्त है - (१) भाव इन्द्रिय (२) द्रव्य इन्द्रिय
इन्द्रियों का बाहय पौदगलिक रूप द्रव्येन्द्रिय कहलाता है जबकि आन्तरिक चिन्मय रूप कहलाता है - भावेन्द्रिय।
द्रव्यरूपा इन्द्रिया वस्तुतः आत्मा की परिचायक होती हैं। आत्मा के द्वारा होने वाले सभी संवेदनो के वे साधन भी होती हैं। इन्द्रिया गणना की दृष्टि से पांच प्रकार की कही गयी है। यथा
१) आंख २) कान ३) घ्राण ४) रसना ५) स्पर्शन
संसार के सभी जीव कर्मानुसार इन इन्द्रियों को धारण करते है। एक इन्द्रिय-स्पर्शन धारक जीव स्थावर कहलाते हैं और शेष कहलाते है त्रस। मन के साथ पांच इन्द्रियों के धारक श्रेष्ठ कहलाते हैं। मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। कषाय
कष और आय के सहयोग से कषाय शब्द का गठन हुआ है। कषाय का अर्थ - अभिप्राय है कर्म तज्जन्य जन्म-मरण। आय से तात्पर्य है - आना अर्थात बंधन! जीव का बार-बार जन्म-मरण के चक्र मे पड़ना वस्तुतः कषाय का परिणाम है।
आवेग तथा लालसा मुखी वृत्तियां और प्रवृत्तियां कषाय को जन्म देती है ।
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