________________
स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
आगमिक शब्दावलि और उसकी पारिभाषिकता
डाः महेन्द्रसागर प्रचंडिया
-
एम. ए., पी-एच. डी., डी. लिट
काल-क्षेत्र में होने वाले नैत्यिक परिवर्तन के कारण हमारे सोच और समझ में भी यथेच्छ परिवर्तन हुये हैं। परिवर्तन प्रतिक्षण हो रहे हैं। इसी परिवर्तन की परम्परा में तथा हमारे नैत्यिक स्वाध्याय के अभाव में आज आगमिक शब्दावलि पूर्णतः पारिभाषिक हो गयी है।
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार श्रमण और साधु आगम चकृतू साहू अर्थात साधु आगम की आँख से देखता है । आगम की आँख से जीव और जगत को देखे बगैर प्राणी का आत्मिक और आध्यात्मिक विकास सम्भव नही होता है। आगम को देखने और परखने के लिये उसकी पारिभाषिक शब्दाबलि पर सावधानी पूर्वक अध्ययन और अनुशीलन करना परमावश्यक है ।
इसी आवश्यकता को ध्यानमें रखकर यहां उदाहरणार्थ दस शब्दों - यथा
१) आवश्यक २) इन्द्रियां
३) कषाय
४) गुणस्थान
५) जैन संघ
६) परीषह
७) प्रतिक्रमण
८) समिति
६) साधु समाच
१०) सल्लेंखना
Jain Education International 2010_03
२४०
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org