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दर्शन-दिग्दर्शन
विद्वानों के जैन धर्म को समझने की प्रक्रिया के साथ-साथ इस धारणा की शुरुआत हुई थी, जिसका थोड़ा बहुत असर परंपरावादी जैनो में भले ही हुआ हो, परंतु परंपरावादी जैन न तो जैन-धर्म को ब्राह्मण-धर्म विरोधी मानते हैं और वह न ही भगवान ऋषभदेव या महावीर को जैन धर्म का संस्थापक । अपनी तीर्थकर परंपरा के वेदों और पुराणों मे उल्लेख होने का जिक्र वे बड़े गर्व के साथ करते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि यजुर्वेद में जो ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि का निर्देश मिलता है, वे वस्तुतः जैन तीर्थकर ही हैं। इसी तरह भागवत पुराण में वर्णित ऋषभदेव को प्रथम तीर्थकर आदिनाथ से अभिन्न मानते हैं। महाभारत मे विष्णु के सहस्त्र नामों में त्रेयासं, अनंत, धर्म, शान्ति और संभव और शिव के नामों मे ऋषभ, अजित, अनंत और धर्म का जो उल्लेख मिलता है, वह जैनो के अनुसार तीर्थकर परंपरा का ही उल्लेख है।
जैनो की अहिंसा को लेकर अक्सर यह गलतफहमी रहती है कि उनकी अहिंसा ने समाज को कमजोर बना दिया था उस अहिंसा के चलते जैन लोगों ने कुएँ खुदवाने, तालाब बनवाने जैसे लोकोपकारी काम करने बंद कर दिए। यह भ्रांति जैनो की अहिंसा संबधी धारणा को न समझने के कारण पैदा होती है। जैन हिंसा के चार भेद करते है .... (1) संकल्पी,(2) उद्योगी,(3) आरंभी,(4) विरोधी। निर्दय परिणाम को हेतु बनाकर संकल्प पूर्वक किया गया प्राणघात संकल्पी हिंसा है । व्यापार या गृहस्थी के कामों मे सावधानी बरतते हुए भी जो हिंसा हो जाती है वह उद्योगी और आरंभी हिंसा है। अपने तथा अपने परिवार, धर्मायतन, समाज देशादि पर किए गए आक्रमण से रक्षा के लिए की गई हिंसा विरोधी हिंसा है।
श्रावक या गृहस्थ इन चार हिंसाओं में से पहली संकल्पी हिंसा का ही सर्वथा त्यागी होता है। इसलिए जैनों के अनुसार गृहस्थ जीवन के लिए अनिवार्य आरंभी, उद्योगी
और विरोधी हिंसा और हिंसा भाव छोड़कर बाकी हिंसा का पूरी तरह त्याग करना ही अहिंसा अणुव्रत है। इसका उद्देश्य गृहस्थी को अमर्यादित भोग-सामग्री इकट्ठा करने के लिए की जाने वाली हिंसा को रोकना है, परंतु जीवन की जरूरी आवश्यकताओं के जुटाने, या प्राणरक्षा के निमित्त की गई हिंसा की छूट जैन धर्म श्रावकों को देता है। परंतु यह छूट जैन साधुओं के लिए नही है, वे अहिंसा महाव्रत का पालन करते हैं। उन्हे चारों हिंसाओं में से किसी एक भी हिंसा की अनुमति नहीं है। इस प्रकार जैन साधु का जीवन ही पूर्ण
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