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दर्शन-दिग्दर्शन
जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ।
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ। (पृ०४२/१४७) यही 'आत्मतुला' है । महावीर इसी आत्मतुला के अन्वेषण के लिए हमें आमंत्रित करते हैं - एवं तुलमण्णेसिं (वही १४८)।
___ आत्मतुला वस्तुतः सब जीवों के दुःख-सुख के अनुभव की समानता पर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। महावीर कहते है कि हमारी ही तरह सभी प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुखास्वादन करना चाहते हैं। दुःख से घबराते है। उन्हें बध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते है -
सव्वे पाणा वियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा। (८२/६३) सव्वेसिं जीवियं पियं। (८४/६४)
अंदर ही अंदर हम सब भी यही चाहते है। अतः महावीर कहते है कि तू बाहय जगत को अपनी आत्मा के समान देख-आयओ बहिया पास (१३४/५२)
यदि हम बाहय जगत को अपनी आत्मा के समान देख पाते हैं तो निश्चित ही हिंसा से विरत हो सकते है। महावीर ने अहिंसक जीवन जीने का हमें यह एक उत्तम रक्षा-कवच दिया है, जिससे मनुष्य न केवल स्वयं अपने को बल्कि समस्त प्राणी जगत को हिंसा से बचाए रख सकता है। हमारी सारी कठिनाई यही है कि हम जिस तराजू से स्वयं
को तोलते हैं, दूसरों को नहीं तोलते। दूसरों के लिए हम दूसरा तराजू इस्तेमाल करते है। किन्तु महावीर ‘आत्मतुला' पर ही सबको तोलने के पक्षधर है। जब तक हम दूसरे प्राणियों को भी आत्मवत नहीं समझते, हम वस्तुतः अपनी रक्षा भी नहीं कर सकते। सबकी रक्षा में ही अपनी रक्षा भी सम्मिलित है। इसीलिए महावीर कहते है , सभी लोगों को समान जानकर, व्यक्ति को शस्त्र से, हिंसा से, उबरना चाहिए -
समयं लोगस्य जाणित्ता, एत्थ सत्थोवरए। (पृ० १२२/३) यहां यह दृष्टव्य है कि महावीर ने हमें यह जो हिंसा-अहिंसा विवेक के लिए आत्मतुला का मापदंड दिया है, उसे किसी न किसी रूप में अन्य दर्शनों/दार्शनिकों ने भी अपनाया है। इस संदर्भ में पाश्चात्य विख्यात दार्शनिक, कांट का नाम सहज ही स्मरण हो
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