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स्व: मोहनलाल बांठिया स्मृति ग्रन्थ
वैज्ञानिक प्रवृत्ति क्षमता
___ जैन मान्यताओं की वैज्ञानिकता का अनेक आधुनिक विद्वानों एवं साधुजनों ने शोधपूर्ण अध्ययन किया है और पाया है कि जैन विचारधारा एक समग्रवादी विज्ञान है जो विश्व के पंजीकृत स्वरूप को वैज्ञानिक आधार देती है। इसके अनेक सिद्धान्त, गुणात्मक रूप से ही सही, आज की भाषा में अच्छी तरह व्यक्त किए जा सकते हैं। अनेक प्रकरणों में वैज्ञानिकों ने पूरक या अतिरिक्त सूचनाएं प्रदान कर उन्हें अधिक सार्थक बनाया है।
किसी भी विषय वस्तु का अध्ययन दो प्रकार से किया जा सकता है -- १. ज्ञाता सापेक्ष स्वानुभुति, प्रतिभाज्ञान या आगम एवं २. ज्ञेय सापेक्ष या निरीक्षण परीक्षणात्मक ज्ञान । सिद्धसेन ने बताया है कि संसार में बहुत कम विषय ऐसे हैं जिनका आगम या अतीन्द्रिय ज्ञान से अध्ययन किया जा सकता है। फिर भी एक युग ऐसा रहा है जब अतीन्द्रिय ज्ञान को प्रमुखता मिली। इस कारण धर्म के क्षेत्र में वैज्ञानिक दृष्टिकोण शिथिल हो गया और उसका परिणाम धार्मिकता के ह्रास के रूप में अब हमारे सामने है। यह खेद की बात है कि इस प्रवृत्ति को आज भी संस्कृति संरक्षण के नाम से पोषित किया जा रहा है।
वर्तमान में धार्मिक आस्थाओं को बलवती बनाने के लिए तथा अनुकरणीय नैतिक जीवन पद्धति के पुनरुद्धार के लिए यह आवश्यक है कि हम सिद्धसेन, अकलंक, समंतभद्र आदि की परम्परा का अनुसरण करें एवं अपने श्रद्धावाद को वैज्ञानिक आधारों पर दृढ़ करें। इस प्रक्रिया में कभी-कभी शास्त्रवर्णित दृश्यजगत के अनेक प्रकरणों से संबद्ध मान्यताओं में परिवर्धन, संशोधन और पूरण भी आवश्यक हो सकते हैं। अनेक विद्वानों और साधुजनों ने यह अनुभव किया है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थ सूत्र ग्रंथ हैं, उनमें सांकेतिक भाषा है। उनमें किसी भी तथ्य के संबंध में निरीक्षण और परिणाम मात्र दिए हैं। वे परिणाम कैसे प्राप्त हुए, इनकी क्रियाविधि का क्या स्वरूप है, इस संबंध में स्पष्टताएं कम हैं। साथ ही वे उस युग में लिखे गये थे जब आज के समान वैज्ञानिक अध्ययन की सुविधाएं नहीं थीं। वैज्ञानिक अन्वेषणों ने इस कभी को दूर करने में पर्याप्त अंशों में सफलता पाई है। यही नहीं, उसने अनेक ऐसे क्षेत्रों में भी सार्थक प्रवेश किया है जिन्हें पहले “अतीन्द्रिय" कहा जाता था। इससे अतीन्द्रिय शक्तियों के विकाश का मार्ग भी खुला है। इसका ही यह फल है कि शास्त्रों में अन्यथा निरूपणों के बावजूद भी इस पंचमकाल में भी जैनधर्म सम्मत आठों कर्मो के क्षयोपशम में वृद्धि हुई है। इस क्षयोपशम की वृद्धि को समग्र
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