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दर्शन दिग्दर्शन
खाद्यों की सीमा, वस्त्रों का परिसीमन पानी बिजली का हो न अपव्यय धीमन। यात्रा परिमाण, मौन, प्रतिदिन स्वाध्यायी, हर रोज विसर्जन अनासक्ति वरदायी। हो सदा संघ सेवा सविवेक सफाई
प्रतिदिवस रहे इन नियमों की परछाई ।। व्यक्तिगत रूपांतरण के साथ सामाजिक स्वस्थता गृहस्थ जीवन को समाधिमय बनाने में बहुत सहयोगी बनती है। एक हिन्दू क्रिश्चियन पद्धति से तीज त्योहार मनाए अथवा एक जैन मुस्लिम रीति-रिवाजों का अनुकरण करे तो पारिवारिक सामंजस्य ओर सौहार्द में दरारें पड़ जाती हैं। उससे रसमय जीवन नीरस बन सकता है। अन्यथा जन्म से हिन्दू और जैन कहलाने वाले कर्म से हिन्दूत्व और जैनत्व को जी सके, कम संभव है। अतः अपने मंतव्यों पर आधारित संस्कार-विधि को जीवन का अभिन्न अंग मान ले तो फिर भावी पीढ़ी पर दोषारोपण या आदेशात्मक टिप्पणी का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होगा । अभिभावकों के लिए आवश्यक है कि वे जैन-संस्कार-विधि को सर्वमान्य विधि बनाने का गौरव दें।
सुत-जन्म विवाह भवन की नींव लगाएं, लौकिक-लोकोत्तर जो भी पर्व मनाएं। श्री वीर जयन्ती चरम-दिवस दीवाली,
निज वर्षगांठ या अक्षय तीज सुहाली।। जीवन की धरती पर कंटीली झाड़ियां तब पैदा होती हैं जब व्यक्ति का लक्ष्य स्पष्ट नहीं होता तथा लक्ष्य प्राप्ति की ओर सतत पुरूषार्थ नहीं होता। प्रतिदिन के छोटे से छोटे शिष्टाचार से लेकर महापर्व तक के कार्यो के सम्पादन में जैनत्व जहां मुखर रहता है वहां श्रावक के गरिमामय आचरण से उनका श्रावकत्व बोलता है।
इतिहास सदा उन्हीं की स्मृति करता है जो सिद्धांतों के लिए मरना स्वीकार कर लेते हैं। अनुकूल और प्रतिकूल किसी भी स्थिति में अपनी आस्था पर चोट नहीं आने देते। वे देव, गुरू, धर्म के नाम की सुरक्षा ही नहीं करते उसे जी कर दिखाते हैं और ऐसे व्यक्तित्व ही आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श बनते हैं। अम्बड़ संन्यासी ने सुलसा को देवी-माया
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