________________
दर्शन दिग्दर्शन
शब्द सीधे गुरु के कान में जाते हैं। जिससे गुरु की एकाग्रता भंग हो सकती है। गुरु के आगे अत्यन्त निकट बैठने से अविनय होता है तथा दर्शनार्थियों के गुरु-दर्शन में बाधा पहुंचती है। पीछे बैठने के निषेध का एक कारण यह भी हो सकता है कि पीछे बैठने से गुरु के दर्शन नहीं हो पाते। उसके अभाव में शिष्य गुरु के इंगित-आकार को समझ नहीं पाता। गुरु के घुटनों से घुटना सटाकर बैठने से भी विनय का अतिक्रमण होता है, अशिष्टता धोतित होती है। सारांश की भाषा में मुनि किसी भी स्थिति में असभ्य और अशिष्ट तरीके से गुरु के पास नहीं बैठे।
मुनि बिना प्रयोजन बिना पूछे बीच में न बोले। दो व्यक्ति परस्पर बात कर रहे हों अथवा गुरु किसी के साथ बात करें, उस समय यह कार्य ऐसे नहीं, बल्कि ऐसे हुआ - इस प्रकार बीच में न बोले। चुगली न खाए - परीक्ष में किसी का दोष न कहे और कपटपूर्ण असत्य का वर्जन करे।'
मुनि ने जिस भाषा का विषय अपनी आंखों से देखा हो वह भी यदि अनुपघातकारी हो तो अमन्द और अनुच्च स्वर के साथ सभ्यता से कहे। भाषा स्वर, व्यंजन, पद आदि से सहित तथा स्पष्ट होनी चाहिए। भाषा की अस्पष्टता से सुननेवाला आशय नहीं समझ सकता। वक्ता को बार-बार बोलना पड़ता है। फिर भी न समझने पर श्रोता को झुंझलाहट आ सकती है। अतः एक बार सुनते ही भाषा का आशय हृदयंगम हो जाए, एसी स्पष्ट भाषा बोलनी चाविए ।
___ आचारंग और पज्ञप्ति - भगवती को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को पढ़ते वाला मुनि यदि बोलने में स्खलित हुआ है, उसने वचन, लिंग और वर्ण आदि का विपर्यास किया है तो भी मुनि उसका उपहास न करे। २
धर्म का मूल है विनय और उसका अन्तिम फल है मोक्ष। जैन आगमों में विनय का प्रयोग आचार एवं उसकी विविध धाराओं के अर्थ में हुआ है। नम्रता उस व्यापक विनय सरिता की एक धारा है। उसका सातवां प्रकार है उपचार विनय । यद्यपि विनय का सीधा सम्बन्ध अपनी आत्मा से है। विनय अपना ही होता है, अन्य का नहीं। नम्रता आत्मा का सहज गुण है। फिर भी पूर्वाचार्यों ने उपचार विनय - व्यवहार विनय को भी महत्त्व-पूर्ण स्थान दिया है। १. दसवेआलियं ८/४६ २. वही - ८/४६
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org